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shamawritesBebaak_शमीम अख्तर
तुम बनके फिरोन कर रहे हो बेगुनाहों का नरसंहार रफाह में,... फिर कह देते हो सफेद झूठ अपनी ही जुबान सियाह में...... के हमने नहीं मारे मर्द औरत और नौनिहाल रफ़ाह में... जो रब वक्त ए मूसा के फिरोन को कर सकता है गर्क,वही मौजूदा फिरोंन का भी करेगा इंशाल्लाह संहार रफाह में. तकब्बुर,जुल्म की राते बहुत लंबी नही होती,रुक जा ज़ालिम ते रा भी निकलेगा जनाजा इसी रफ़ाह में... हम कैसे मुसलमान है,जो देखती आंखे न हीं करते कुछ हरकते हिमायत निहत्थे रफ़ाह में .... तुमने ही तो की है बमों से बौ छारों की हैवानियते पर रफाह में...., बहुत जल्द देते फिरोगे मेहशर में तुम दुहाई दो जानू दोजख ए जगह में ©shamawritesBebaak_शमीम अख्तर #rafah#nojoto तुम बनके फिरोन कर रहे हो बेगुनाहों का नरसंहार रफाह में,..... फिर कह देते हो सफेद झूठ अपनी ही जुबान सियाह में...... के हमने न
Rabindra Kumar Ram
*** ग़ज़ल *** *** आजमाइश *** " क्या बतायें कि किसी की ख़्वाहिश में जिते हैं , मुकम्बल जो ना हो जाने किसकी आजमाईश में जिते हैं , फिर बेजोर तौर पें तेरा होने का आजमाईश की जाये , फिर जाने तुम किसकी ख्वाहिश की तलब किये हो , क्या बतायें कि किसी की ख़्वाहिश में जिते हैं , मुकम्बल जो ना हो जाने किसकी आजमाईश में जिते हैं , रुखसत करें की क्या करें तेरे बगैर ही रहा जाये , तसव्वुर के ख्यालों में फिर किसी की आजमाइश की जाये , मिला है तो मिल बर्ना कभी ऐसे कभी फ़ुर्क़त हुई ना हो , रफ़ाक़त के कुछ सलीके तु मुझपे आजमायें तो सही तो सही हैं , रह रह के उठता है गुब्बार तेरा , तु भी कभी मुझे इस सलीके से आजमायें सही , क्या बतायें कि क्या आजमायें अब , मुहब्बत की कौंन सी तिलिस्म आजमायें है, वो आती हैं और चली जाती मेरी ख़्वाहिशों में , कि अब कौन सा क़सम दे उसे जो वो रुक जाये अब . " --- रबिन्द्र राम ©Rabindra Kumar Ram *** ग़ज़ल *** *** आजमाइश *** " क्या बतायें कि किसी की ख़्वाहिश में जिते हैं , मुकम्बल जो ना हो जाने किसकी आजमाईश में जिते हैं , फिर बेजोर
Prashant Badal
जितनी शिद्दत से लिखी गजल मैंने . उतनी शिद्दत से वो पढ़ी नहीं गई .. दर्द भी शामिल था , प्यार भी था शामिल उसमे.. रफ़्तार से निकली कलम थी, वो खामोशी से कढ़ी नही गई वो वो तेरे नाम की गज़ल थी पागल.. तेरे हाथो में मेंहदी यूं ही रची नही गई.. -लफ़्ज-ए-प्रशान्त✍🏻 #m_rwriter ©Prashant Badal जितनी शिद्दत से लिखी गजल मैंने . उतनी शिद्दत से वो पढ़ी नहीं गई .. दर्द भी शामिल था , प्यार भी था शामिल उसमे.. रफ़्तार से निकली कलम थी, वो
Rabindra Kumar Ram
*** ग़ज़ल *** *** नुमाइश *** " क्यों ना तेरा तलबगार हो जाऊं कहीं मैं , मैं मुख्तलिफ मुहब्बत हूं इस दस्तूर से , क्यों ना तेरा बार बार मुसलसल हो जाऊं मैं , खुद को तेरी आदतों में कितना मशग़ूल किया जाये , तुझमें में मसरुफ़ कहीं जाऊं मैं , बात जो भी फिर कहा तक जार बेजार , तेरे ज़िक्र की नुमाइश की पेशकश की जाये , लो ज़रा सी इबादत कर लूं भी मैं , इश्क़ की बात हैं मुहब्बत कर लूं मैं , तेरे ख्यालों की नुमाइश क्या ना करता मैं , ज़र्फ़ तेरी जुस्तजू तेरी आरज़ू तेरी , फिर इस हिज़्र में फिर किस की ख़्वाहिश करता मैं , उल्फते-ए-हयात एहसासों को अब जिना आ रहा मुझे , जो तेरे ख्यालों के तसव्वुर से रफ़ाक़त जो कर रहा हूं मै . " --- रबिन्द्र राम ©Rabindra Kumar Ram *** ग़ज़ल *** *** नुमाइश *** " क्यों ना तेरा तलबगार हो जाऊं कहीं मैं , मैं मुख्तलिफ मुहब्बत हूं इस दस्तूर से , क्यों ना तेरा बार बार मु
Rabindra Kumar Ram
" तेरी ख़बर तो मिलने को मिलती ही रहती हैं , फिर तु ही कुछ इस कदर बेपरवाह हो गई , रफ़ाक़त के कुछ सलीके इख्तियार कर तो लें , फिर इस गुमनामी में तु फिर शिद्दत से मिले तो मिले . " --- रबिन्द्र राम ©Rabindra Kumar Ram " तेरी ख़बर तो मिलने को मिलती ही रहती हैं , फिर तु ही कुछ इस कदर बेपरवाह हो गई , रफ़ाक़त के कुछ सलीके इख्तियार कर तो लें , फिर इस गुमनामी मे