Find the Latest Status about अविलम्ब from top creators only on Nojoto App. Also find trending photos & videos about, अविलम्ब.
Poetry with Avdhesh Kanojia
आवाहन-4 जोड़ना है हमको अब यदि टूटे भारत के खण्डों को। तो कमर कसो तैयार हो जाओ उठाओ अपने भुजदण्डों को? वीर प्राप्त हुए वीर गति को क्या रह गए बाकी डरने को? जीवन न समर्पित हो जो देश को क्या जन्म लिया बस मरने को? कर दो नष्ट अविलम्ब शत्रु को और उसके हथकंडों को। फैंको उखाड़ अब छिपे हुए सब गद्दार रूपी सरकंडों को।। जन्में हैं यहाँ हम पले यहाँ पर भारत माँ का ऋण है हम पर। होंगे न दूर कर्तव्य से चाहे कितने प्रहार खाएँ तन पर।। माँ भारती की देखो जो यह वैभवशाली शान है। उसके लिए यह जन्म तो क्या सौ जन्म मेरे कुर्बान हैं।। #भारत #bharat #india #indianarmy #indian #poetry #poem आवाहन-4 जोड़ना है हमको अब यदि टूटे भारत के खण्डों को। तो कमर कसो तैयार हो जाओ
vishnu prabhakar singh
नाव है मंझधार में खेवैया बेसुध पार में महिमा धार की गणतव्य नाव का किनारा दाँव का रामभरोसे कुछ नहीं रामभरोसे बेसुध अड़ा है नाव कहीं,पतवार कहीं ना रहेगा नाव,ना रहेगा खेवैया ऊब चूका है,लाचारी से खुशहाल नहीं बना,पतवारी से लाचार लुटेरों की भी मगजमारी है चढ़ावा तो विपत्ति भारी है रामभरोसे राम भरोसे है उस पर चुनाव की तैयारी है पूरा समाज मंझधार की बीमारी है अबकी बिहार की पारी है!! नितीश असफल है,समस्या अटल है दारू बंद है,चुनाव अविलम्ब है "पत्रकारों सिर्फ दारू पर चोट करो,सरकार फिर बदलेगी" !! नाव है मंझधार में खेवैया बेस
Paramjeet kaur Mehra
Rakesh Kumar
#Pehlealfaaz BPNPSS(MUL) बिहार पंचायत नगर प्रारंम्भिक शिक्षक संघ मुल पटना जिला इकाई की ओर से स्नातक ग्रेड मे प्रोन्नति / सामंजन की मॉग की गई । नया स्नातक ग्रेड मे नि
Poetry with Avdhesh Kanojia
जोड़ना है हमको अब यदि टूटे भारत के खण्डों को। तो कमर कसो तैयार हो जाओ उठाओ अपने भुजदण्डों को? वीर प्राप्त हुए वीर गति को क्या रह गए बाकी डरने को? जीवन न समर्पित हो जो देश को क्या जन्म लिया बस मरने को? कर दो नष्ट अविलम्ब शत्रु को और उसके हथकंडों को। फैंको उखाड़ अब छिपे हुए सब गद्दार रूपी सरकंडों को।। जन्में हैं यहाँ हम पले यहाँ पर भारत माँ का ऋण है हम पर। होंगे न दूर कर्तव्य से चाहे कितने प्रहार खाएँ तन पर।। माँ भारती की देखो जो यह वैभवशाली शान है। उसके लिए यह जन्म तो क्या सौ जन्म मेरे कुर्बान हैं।। ✍️अवधेश कनौजिया© आवाहन-4 जोड़ना है हमको अब यदि टूटे भारत के खण्डों को। तो कमर कसो तैयार हो जाओ उठाओ अपने भुजदण्डों को? वीर प्राप्त हुए वीर गति को
Poetry with Avdhesh Kanojia
आवाहन-4 जोड़ना है हमको अब यदि टूटे भारत के खण्डों को। तो कमर कसो तैयार हो जाओ उठाओ अपने भुजदण्डों को? वीर प्राप्त हुए वीर गति को क्या रह गए बाकी डरने को? जीवन न समर्पित हो जो देश को क्या जन्म लिया बस मरने को? कर दो नष्ट अविलम्ब शत्रु को और उसके हथकंडों को। फैंको उखाड़ अब छिपे हुए सब गद्दार रूपी सरकंडों को।। जन्में हैं यहाँ हम पले यहाँ पर भारत माँ का ऋण है हम पर। होंगे न दूर कर्तव्य से चाहे कितने प्रहार खाएँ तन पर।। माँ भारती की देखो जो यह वैभवशाली शान है। उसके लिए यह जन्म तो क्या सौ जन्म मेरे कुर्बान हैं।। ✍️अवधेश कनौजिया© आवाहन-4 जोड़ना है हमको अब यदि टूटे भारत के खण्डों को। तो कमर कसो तैयार हो जाओ उठाओ अपने भुजदण्डों को? वीर प्राप्त हुए वीर गति को
रजनीश "स्वच्छंद"
सिकन्दर रोता है।। क्यूँ आज समंदर रोता है, मुंह ढांक ये अंदर रोता है। किस हार का डर है मन मे बसा, जो आज सिकन्दर रोता है। विजय पताका गाड़ धरा, क्या मिला नहीं क्या छूट रहा। क्या आस लगाए बैठा था, पल पल भर्रा जो टूट रहा। नीयति मोड़ वो आया था, संतोष विजय का रहा नहीं। मन हारे ही मन की हार रही, किस्सा ये किसी ने कहा नहीं। है काल-सर्प का दंश अमोघ, विष चढ़ा जो फिर ये उतरता नहीं। ये मूषक नहीं दीमक भी नहीं, कतरा कतरा ये कुतरता नहीं। है दम्भ अविलम्ब यौवन छूता, बालक शैशव का बोध नहीं। बस धन जीता नर जीता नहीं, वैभव तो रहा आमोद नहीं। हर एक सिकन्दर से कह दो, कभी दया पराजित नही रही। ये मनुज भाव मनुहार विधा, अपयश से शापित नहीं रही। काम क्रोध और तम-वृति, मानव जीवन परिहार्य रही। दया भाव श्रृंगरित आत्मा, हर एक युग मे अनिवार्य रही। नर हो जो नर का भाव पढ़े, वो किस्सा ही अमर होता है। किस हार का डर है मन मे बसा, जो आज सिकन्दर रोता है। ©रजनीश "स्वछंद" सिकन्दर रोता है।। क्यूँ आज समंदर रोता है, मुंह ढांक ये अंदर रोता है। किस हार का डर है मन मे बसा, जो आज सिकन्दर रोता है। विजय पताका गाड़ धरा
Anil Siwach
रजनीश "स्वच्छंद"
मैं भष्मासुर।। मैं मानव हूँ मैं श्रेष्ठ रहा, मैं बुद्धि-बल से ज्येष्ठ रहा। मेरी विजय का बजता डंका, हस्तिनापुर हो या हो लंका। मुझमे विवेक विशेष रहा, जग अविवेकी शेष रहा। इस युग का मैं निर्माता हूँ, नीति-नियंता विधाता हूँ। धरा नदी ये पर्वत सारे, मेरे विवेक के आगे हारे। पाषाण में तप था बहुत किया, मनचाहा वर सृष्टि ने दिया। पल में मैं सागर लांघ रहा, मुर्गा अभी भी देता बांग रहा। वो सदियों से वहीं पे बैठा रहा, मानो जड़ता ही उसमे पैठा रहा। हमने विकास का मंत्र लिया, हर काम हवाले यंत्र किया। अब मौत भी मुझसे हारी है, मेरी बुद्धि ही सबपे भारी है। मैं ब्रह्मा विष्णु महेश हुआ, जग बाकी सब दरवेश हुआ। जो आज मैं अंदर झांक रहा, कितना सच है जो हांक रहा। मैंने जो तप था बड़ा किया, वर ले सृष्टि को खड़ा किया। अमरत्व का वर था मांगा मैने, था सृष्टि नियम भी लांघा मैंने। जो मांगा मुझको मिलता रहा, मेरे बल से जग ये हिलता रहा। सृष्टि से वर ले दम्भ हुआ, एक खोट प्रकट अविलम्ब हुआ। जो हुआ मैं निर्माता सृष्टि का, बदला था सार मेरी दृष्टि का। ले वर करने मैँ अंत चला, हत्या उसकी जो अनन्त चला। प्रकृति भी जब मुझसे हारी, बोली कि अब मेरी बारी। बन मोहिनी भौतिकता छाई थी, अभिशाप छुपा संग लायी थी। मैं कामातुर मोहित उस पर, एक नृत्य हुआ उस उत्सव पर। निज हाथों में भष्म का वर मेरा, नृत्य ऐसा था कर-नीचे सर मेरा। फिर वही कहानी गढ़ी गयी, एक छद्म लड़ाई लड़ी गयी। था भष्मासुर अवतरित हुआ, बलशाली पर भंगुर त्वरित हुआ। मैं मनुज नहीं मैं भष्मासुर, अपनी हत्या को ही आतुर। वृत्ताकार समय जो चलता है, हर युग भष्मासुर मरता है। ©रजनीश "स्वछंद" मैं भष्मासुर।। मैं मानव हूँ मैं श्रेष्ठ रहा, मैं बुद्धि-बल से ज्येष्ठ रहा। मेरी विजय का बजता डंका, हस्तिनापुर हो या हो लंका। मुझमे विवेक वि
रजनीश "स्वच्छंद"
सुनो भी।। मैं लिखता और मिटाता हूँ, ले कलम कभी कतराता हूँ। जिनसे तेरा सरोकार नहीं, उनकी बातें ही बतलाता हूँ। भर स्याही कलम जो चलती है, एक नई चेतना पलती है। अक्षर काले हैं लेकिन, आंदोलित करती ये जलती है। कुछ कुत्ते पत्तल थे चाट रहे, कुछ बच्चों में भी थे बांट रहे। जो उत्सुक हाथ पड़े रोटी पे, गुर्रा कर कुत्ते भी थे डांट रहे। तेरे ही देश का ये तो किस्सा है, इस माटी का तू भी तो हिस्सा है। क्यूँ खुली नजर कुछ देखे नहीं, कदमों को पल भर भी टेके नहीं। क्यूँ हृदय ये पत्थर होता गया, थी आंख खुली पर सोता गया। किस रंग का तूने पहना चश्मा, दिख भी जाती सच्चाई वरना। तू जीव नहीं है विशेष रहा, एक दिन है तुमको भी मरना। कागज का सीना मैं कुरेद रहा, मानव जाति पे मुझको खेद रहा। क्यूँ कर जना इस धरा ने हमको, जो पूतों का ही खून सफेद रहा। मानव होने का क्या मैं दम्भ भरूँ, क्या काम कहो अविलम्ब करूँ। क्या कागज़ है निर्बल तुम बोलो, क्या लिख लिख लौह-स्तंभ करूँ। किस कारण जन्म हुआ अपना ये, किस कारण हमने देह धरा। जो रहे सहोदर अग्रज अनुज ये, मन मे फिर क्यों द्वेष पड़ा। समय का पहिया घूम है कहता, पौधा पौधा भी झूम ये कहता। स्नेह दया पहचान है तेरी, ईश्वर ताबीजों को चूम ये कहता। मज़हब के हैं ठेकेदार बहुत, मैं इंसानी धर्म अपनाता हूँ। मैं लिखता और मिटाता हूँ, ले कलम कभी कतराता हूँ। ©रजनीश "स्वछंद" सुनो भी।। मैं लिखता और मिटाता हूँ, ले कलम कभी कतराता हूँ। जिनसे तेरा सरोकार नहीं, उनकी बातें ही बतलाता हूँ। भर स्याही कलम जो चलती है,