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RJ राहुल द्विवेदी 'स्मित'
नदी के दोनों तट हैं मौन, सुना पर कानों ने सम्वाद। खुले जब बंद प्रणय के पृष्ठ, जगी तब महकी-महकी याद।। हृदय के टुकड़े हुए अनेक, मिले अपनों से जब आघात। हुई जिस समय भोर से दूर, बिलख कर रोयी थी तब रात। चैन से सोते कैसे प्रश्न, तड़प कर जाग उठी फ़रियाद।। तुम्हें यदि जाना ही था दूर, हुए क्यों अंतर्मन के पास। खिलाए क्यों निष्ठा के फूल, भुगतना था जब यों मधुमास। छलक आता आँखों में नीर, सिसकता फिर अन्तस का नाद।। लिखा विधि ने ये कैसा भाग्य, बताते नहीं, हुए क्यों रुष्ट? नहीं यदि मेरा प्रेम पुनीत, भला फिर किसका पावन पुष्ट? अभी तक चिन्तन में हूँ लीन, करूँ किससे, कैसे प्रतिवाद।। सुना था खोना भी है रीति, न आया कुछ भी मेरे हाथ। किंतु आशा है अब भी शेष, मिलेगा पुनः तुम्हारा साथ। नहीं था कुछ भी तुमसे पूर्व, बचेगा शून्य तुम्हारे बाद।। ©RJ राहुल द्विवेदी 'स्मित' #बचेगा_शून्य_तुम्हारे_बाद #गीत #कविता
RJ राहुल द्विवेदी 'स्मित'
जिन आँखों में बंजर दुनिया। उनकी खातिर पत्थर दुनिया।। बैठे सौ सम्वाद अकेले, घूर रहे सागर के जल को। तूफानों के शब्द हृदय में, देख रहे लहरों के छल को। मोती जाने कहाँ छुपा हो, निकले जिसमें सुन्दर दुनिया।। प्रश्न अकेले पड़े वहाँ पर, जहाँ कुतर्कों का रेला था। उत्तर भी हो गये निरुत्तर, खेल कुमति ने यों खेला था। अंदर-अंदर व्याकुलता है, अपनी धुन में बाहर दुनिया।। निष्ठुरता के निर्जन वन में, कौन हृदय की पीड़ा समझे। ढोलों की धमकी के आगे, क्या होती है वीणा समझे। कटु सच है पर भोले मन को, दे देती है ठोकर दुनिया।। भले नहीं है आज द्रोपदी, किन्तु पुनः संवेग दाँव पर । जलती-तपती धूप अड़ी है, अपना दावा लिये छाँव पर । कैसे आज दिखाऊँ सबको, कैसी मेरे अंदर दुनिया।। ©RJ राहुल द्विवेदी 'स्मित' #पत्थर_दुनिया #गीत #कविता
RJ राहुल द्विवेदी 'स्मित'
दौड़ रहे हैं आँख मूँद कर सपनों के पीछे गिद्ध, छडूंदर, घोड़ा, हाथी, चमगादड़, तीतर।। सरस्वती लक्ष्मी के हाथों की है कठपुतली। कालिख भी मँहगे चश्मे से दिखती है उजली। स्वाभिमान की अर्थी ढोती रोज सवेरे साँझ मैना आती जाती है अब कौवा जी के घर।। सत्य झूठ की बैसाखी पर लँगड़ाता चलता। और खोखले आदर्शों के टुकड़ों पर पलता। धर्म, न्याय, सन्मार्ग, नीति सब त्याग चुके हैं प्राण दुराचार को नहीं रहा अब हाकिम जी का डर।। हंस भूल बैठे हैं अपनी क्षमताएँ सारी। स्वयं अपाहिज प्रतिभा ओढ़े बैठी मक्कारी। संत बने अब घूम रहे हैं बगुला और सियार खोल चुके हैं जगह-जगह पर लालच के दफ्तर।। चातक नजरें खोज रही हैं एक बूँद पानी। बादल सत्तासीन हुए पर करते मनमानी। फसलों से अनुबंध तोड़कर बदल गये हैं खेत किन्तु लबालब भरा हुआ है यह खारा सागर।। ©RJ राहुल द्विवेदी 'स्मित' #दौड़_रहे_हैं #कविता #गीत
RJ राहुल द्विवेदी 'स्मित'
सौंप जो मुझको गये थे, क्षण कभी अनुराग के तुम मैं उन्हीं सुधियों के’ कोमल, गीत गाता चल रहा हूँ जब कभी विश्वास डोले, मीत मुड़कर देख लेना।। कब भला आसान होता, आग साँसों की बुझाना। सागरों का नीर खारा, नित्य पीना, मुस्कुराना। किन्तु तुम लेकर गये थे, जो वचन उसके लिए ही, कहकहों में आँसुओं को, मैं छिपाता चल रहा हूँ जब कभी विश्वास डोले, मीत मुड़कर देख लेना।। आँच पाकर कौन होगा, वृक्ष जो मुरझा न जाये। ओस के तपते कणों से, कोपलें कैसे बचाये। गर्भ में ज्वालामुखी है, और बहता सुर्ख लावा, पर सतह पर हिम नदी सा, गुनगुनाता चल रहा हूँ जब कभी विश्वास डोले, मीत मुड़कर देख लेना।। कब बिना अनुमति तुम्हारी, फूल उपवन में खिला है। प्रेरणा हो या हताशा, जो मिला तुमसे मिला है। बुझ गया होता प्रणय आराधना उपरांत, लेकिन दीप हूँ संकल्प का मैं, तम मिटाता चल रहा हूँ जब कभी विश्वास डोले, मीत मुड़कर देख लेना।। ©RJ राहुल द्विवेदी 'स्मित' #मीत_मुड़कर_देख_लेना #गीत #कविता