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vasundhara pandey
आखिर मैं ही तो मर्यादा हूँ कुल का ऊँचा माथा हूँ बेटे तो बस नाटक हैं बिन कुण्डी के फाटक हैं "वो चाहते हैं " और वो चाहते हैं मैं मुस्कुराती रहूँ गौरैया सी फुदकती रहूँ शिकायत क्या होती है इन होठों को पता भी न हो अधिकारों को त्याग कर
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तुम कहीं भी हो मैं बस तुम्हारी! तुम कहीं भी हो मैं बस तुम्हारी वो समर्पण तब और था ये समर्पण अब बढ़ के है प्रीत की बाती के पी दीप अब बढ़ के हैं धीर तुम मौन हो किन्तु शक्ति के
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"परित्यक्त " चीखता जब ह्रदय, प्रयास ये अभी अपूर्ण है! "परित्यक्त " परित्यक्त होना एक बूँद हलाहल के घूँट सा, दाह्य हृदय सिथिल होता अनाथ सा! अवसर या अपराध सब अज्ञात हो, रह बचा बस ख़ामोशी का अल
vasundhara pandey
डाली डाली डोलते हों हम नहीं ऐसे सयाने! हम तो हैं माली वही जो, जीवित करे हर सूखता रिश्ता! तुम तो फिर भी आस्था हो, जन्मों की तुम कल्पना हो तुम कहो तुम्हें कैसे हार जाते, खुद को कैसे भूल पाते? आह भरते जी रहे थे कुछ यूँ गलियों में तिमिर सी कि आह भरते जी रहे थे कुछ यूँ गलियों में तिमिर सी तुम वहां चमके किरण बन ग्रीष्म में शीतल पवन
vasundhara pandey
तुम जानो या मैं जानूँ बेकार की बातें हैं तुम जानो या मैं जानूँ इतना तो वक़्त ठहरता है तुम सोचो या मैं सोचूँ इक इक बूँद बरसती है बादल की कोरों से ओस सुबह तक नम ह
vasundhara pandey
तुम्हारी प्रीत की पात्रता में मैं ही क्यूँ अपात्र हुयी तुम्हें ढ़ूंढ़ती फिर रहीं हूँ यहाँ भीड़ में हर परछाईं में बस तुम नज़र आते हो यहाँ मेघ में पुरवाई में नज़र तो यूँ खुद को भी लगी पर तुम पर जो लग
vasundhara pandey
लाज रखो मेरी या मुझे धुत्कार दो प्रभु समर्पित हूँ समर्पण में मेरा कुछ भी नहीं जाता तुम्हारा कर्तव्य तुम जानो मुझे पूजा से मतलब है उठालो या गिरा दो अब उठाने या गिराने का सब काम तुम्हारा है नहीं मैं उलझती उनसे पवन गर घर उनका ये हृदय न होता हृदय की टेर सुनते हरि प्रेम यूँ आह ना भरता कितनी त्रुटियां शेष होंगी प्रभु जो समर्पण
vasundhara pandey
रोज़ होती रहती है भेंट यूँ तो स्वप्न की गलियां मधुर हैं, संवारते हो जब केश मोहन स्वप्न वो सबसे मधुर हैं। रात के प्रहरी ठहर कर सुन तो लो बातें हमारी बस बातें बची हैं अब सुनाने कुछ भी नहीं मुरारी जाओ अगर तुम उनके सफऱ उनके शहर तक बातें ना सही ले
vasundhara pandey
वे आयेंगे ! वो आये थे वे भी आयेंगे दूरदर्शिता से शुद्ध आकलन निर्मल मन से कुछ अपनापन निष्पक्ष हो कलम उठायेंगे वे आयेंगे ! सावर्णी से सागर तक गौतमी स
vasundhara pandey
माना कि मुश्किल बहुत है, तू ज़िन्दगी! माना कि मुश्किल बहुत है, तू ज़िन्दगी पर मैं तुझसे हारी ही कब थी? तेरी चुनौतियों में उत्तीर्ण या अनुत्तीर्ण अभी ये तय करने की घड़ी आयी ही कह