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Andy Mann
हम लोग न उलझे हैं न उलझेंगे किसी से हम को तो हमारा ही गरेबान बहुत है ©Andy Mann #उलझन
NeHaa N
मकडी़ भी नहीं उलझती अपने बनाऐ जाल में, जितना एक मनुष्य उलझ जाता हैं, अपने ही बनाए ख्याल में..!! ©NeHaa N #उलझन
M@nsi Bisht
अक्सर उलझ जाता हूं उलझनों में । तू संजोकर फिर से ढाल देती है ।। ©M@nsi Bisht #उलझन
Santosh Verma
जाते वक्त खामियों का समंदर बताया था मुझे । जब मिले थे कौन सी खुबिया थी मुझमें ? सोचता है दिल प्रणाम 🙏🏻 ©Santosh Verma #उलझन
Neel
White यही उलझन तो बड़ी प्यारी है, मेरे दिल में धड़कन जो तुम्हारी है। 🍁🍁🍁 ©Neel उलझन 🍁
Rashmi Vats
अहम अहम को अपने कर दरकिनार । गलतियों को आपस में सुलझाकर। ये कहकर कि छोटी सी ही तो थी बात, नजरंदाज कर दिया करो जरा हंसकर । रिश्तों की अहमियत समझकर। झुक जाया करो अपनी अकड़ छोड़कर। सुकून से जिंदगी बीतेगी तुम्हारी, सभी का आशीर्वाद पाकर। रश्मि वत्स । मेरठ (उत्तर प्रदेश) ©Rashmi Vats #relaxation #अहम #दरकिनार #रिश्ते #बरकरार #उलझन
Gurudeen Verma
White शीर्षक- इस ठग को क्या नाम दे --------------------------------------------------------- बड़े नम्बरी होते हैं वो आदमी, जो करते हैं शोषण छोटे आदमी का, और छीन लेते हैं उधारी चुकाने के नाम पर, गरीब आदमी की जमीन और आजादी। लेते हैं काम छोटे आदमी को, कोल्हू के बैल की तरह दिनरात, एक वर्ष की मजदूरी बीस हजार देकर, जबकि होते हैं खर्च पाँच हजार एक माह में। लेता है ब्याज बहुत वो आदमी, छोटे आदमी को देकर उधार रुपये, बड़े ही ठाठ होते हैं इन आदमियों के, जिनके होते हैं मकां महलनुमा। होती है उनकी जिंदगी राजा सी, जिनके एक ही आदेश पर, हो जाते हैं सारे काम, और हाजिर नौकर चाकरी में। कमाता होगा इतने रुपये वह आदमी, मेहनत की कमाई से कभी भी नहीं, बनाता है वह अपनी इतनी सम्पत्ति, भ्रष्टाचार और दो नम्बर की कमाई से। लेकिन एक ऐसा आदमी भी है, जो लेता है बड़े आदमी से भी ज्यादा दाम, करता नहीं रहम वो अपने भाई पर भी, और कोसता है वह बड़े आदमी, इस ठग को क्या नाम दे।। शिक्षक एवं साहित्यकार गुरुदीन वर्मा उर्फ़ जी.आज़ाद तहसील एवं जिला- बारां(राजस्थान) ©Gurudeen Verma #कविता
Shiv gopal awasthi
ऐसा पढ़ना भी क्या पढ़ना,मन की पुस्तक पढ़ न पाए, भले चढ़े हों रोज हिमालय,घर की सीढ़ी चढ़ न पाए। पता चला है बढ़े बहुत हैं,शोहरत भी है खूब कमाई, लेकिन दिशा गलत थी उनकी,सही दिशा में बढ़ न पाए। बाँट रहे थे मृदु मुस्कानें,मेरे हिस्से डाँट लिखी थी, सोच रहा था उनसे लड़ना ,प्रेम विवश हम लड़ न पाए। उनका ये सौभाग्य कहूँ या,अपना ही दुर्भाग्य कहूँ मैं, दोष सभी थे उनके लेकिन,उनके मत्थे मढ़ न पाए। थे शर्मीले हम स्वभाव से,प्रेम पत्र तक लिखे न हमने। चंद्र रश्मियाँ चुगीं हमेशा,सपनें भी हम गढ़ न पाए। कवि-शिव गोपाल अवस्थी ©Shiv gopal awasthi कविता