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Arora PR
पूर्ण तृप्ति का सुख अभी मुझ से मीलो दूर है उसे पाने के लिये मैं युगो से प्रतीक्षा कर रहा हूँ कल देखे थे मैंने अंन गिनीत तारे इस आसमान मे चमकते हुए लेकिन आज वोआसमान तन्हा है तारे निकले नहीं सिर्फ अकेला चाँद दिखरहा हैं ©Arora PR पूर्ण तृप्ति
Poonam Suyal
मेरे दोस्त मेरे दोस्त जानते हैं, वक्त के साथ चलना, बाग़ में फूलों की तरह, मुस्कुराते हैं। संग रंग-बिरंगे पलों के, सपनों को हैं सजाते, बादलों की छांव में, ख्वाबों को ढालते हैं। जीवन की उलझनों में, सदा देते हैं सहारा, चंदनी रातों में, चाँदनी से मिलाते हैं। (अनुशीर्षक में पढ़ें) ©Poonam Suyal मेरे दोस्त मेरे दोस्त जानते हैं, वक्त के साथ चलना, बाग़ में फूलों की तरह, मुस्कुराते हैं। संग रंग-बिरंगे पलों के, सपनों को हैं सजाते, ब
'मनु' poetry -ek-khayaal
tripti agnihotri
तृप्ति की कलम से मात्रा भार-16+12=28 **************************** मन जाने असुवन की पीड़ा,और न जाने कोई। जाने कैसे रजनी बीती , सारी रैन न सोई । पल-पल उर में जली वेदना, ऐसी हूक उठी अब- होठों पर मुस्कान सजाये, मन ही मन मैं रोई।। ****************************** स्वरचित तृप्ति अग्निहोत्री लखीमपुर खीरी ©tripti agnihotri तृप्ति की कलम से मुक्तक
tripti agnihotri
tripti agnihotri
तृप्ति की कलम से शब्द-शब्द के भाव हैं, भावों के है चित्र। कौन समझ पाया यहाँ, उन भावों को मित्र।।1।। शब्द-शब्द घायल हुआ, अक्षर रहा पुकार। हे!निर्मोही क्यों गया , तू नदिया के पार।।2।। इस दुनिया मे हर कही, बिखरा है संताप अपने-अपने कर्म है, अपना पुण्य प्रताप।।3।। संगत का पड़ता असर, कहते संत-सुजान। बड़े-बड़े ज्ञानी फँसे, भूले अपना ज्ञान।।4।। निश-दिन पत्थर तोड़कर, करती जीवन पार। पत्थर को आकार दे, पत्थर से ही प्यार।।5।। स्वरचित तृप्ति अग्निहोत्री ©tripti agnihotri तृप्ति की कलम से दोहे
चाँदनी
आत्मा नाश कर देती है क्षितिज से निकालते रंग बिरंगे रेशम सी किरणों को इनका खेल विध्वंस के कगार पर ला देता है नाश सिर्फ तन का होता है आत्मा का नहीं वो तो नाश के बाद फूल चढ़ाती है मौत पर नहीं आपके बिताए खुशी, दुख द्वेष, घृणा और अकारण सहे गए मतिभ्रम पर वो जोर जोर से हटृठास करती है आपके मृत्य शरीर के सामने समर्पित होने के वावजूद निगला हुआ शरीर??? और चेहरे पर भारी झुर्रियां गवाह है सीचते छल कपट और झुलसती काया की किसका भय, किसकी आरजू, कौन सा शरीर अब उसका कोई नहीं.... अंत मे रोदन करते हुए आत्मा सिकुड़ जाती मिट्टी मे मिल भी नहीं पाती और उसे तृप्ति देने के लिए अकाल आता है वो मिट्टी को आग बना देता है फिर अद्भुत तांडव होता है इस प्रकृति का विधाता मोक्ष प्रदान नहीं करते धरती नहीं रिसती निष्ठुर विधि गर्दिश मे उसे रौंद देती है और तब बैकुंठ कर्मों का हिसाब माँगता है जैसा कर्म वैसा फल एक एक ज़द का उकूबत मिलता है बेहिसाब.... बेहिचक ©चाँदनी आत्मा नाश कर देती है क्षितिज से निकालते रंग बिरंगे रेशम सी किरणों को इनका खेल विध्वंस के कगार पर ला देता है इनकी किसमे हमे राहत नहीं देती
tripti agnihotri
तृप्ति की कलम से एक ग़ज़ल #बेवजह_भी_कभी_कहकहा_कीजिए 212 212 212 212 बेवजह जुल्म को मत सहा कीजिए। मग्न खुद में हमेशा रहा कीजिए। रूठ ही जायगें है जिन्हें रूठना बात मन की हमेशा कहा कीजिए। वक्त रहते करो बात खुद से कभी भावना में न आकर बहा कीजिए। चार दिन का है जीवन खुशी से जिओ शोक की अग्नि में मत दहा कीजिए। क्या पता कब सफर खत्म हो जायगा बेवजह भी कभी कहकहा कीजिए। स्वरचित तृप्ति अग्निहोत्री लखीमपुर खीरी ©tripti agnihotri तृप्ति की कलम से गजल