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Prachi Mishra
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बहुत पढ़ा लिखा वो इक अनपढ़ मेरी आँखों का ककहरा भी न पढ़ पाया था वो तो कहता था तेरे गीत का मैं किस्सा हूँ जिसको इक शब्द भी समझ में नहीं आया था ©Prachi Mishra बहुत पढ़ा लिखा वो इक अनपढ़ मेरी आँखों का ककहरा भी न पढ़ पाया था वो तो कहता था तेरे गीत का मैं किस्सा हूँ जिसको इक शब्द भी समझ में नहीं आया था #poetessprachimishra #poetessprachimishra #prachimishra #प्राचीमिश्रा
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खामोशी से सुनाते हैं शोर दिल का जैसे समंदर सा हो छोर दिल का आता है मचल कर लबों तक ऐसे जैसे मिलन लहर और साहिल का बता दे कोई हल दिल ए मुश्किल का कोई तो रास्ता होगा सुकूं हासिल का जिसकी सूरत में दिखा नूर खुदा का वही कर गया काम मेरे कातिल का ©Prachi Mishra खामोशी से सुनाते हैं शोर दिल का जैसे समंदर सा हो छोर दिल का आता है मचल कर लबों तक ऐसे जैसे मिलन लहर और साहिल का बता दे कोई हल दिल ए मुश्किल का कोई तो रास्ता होगा सुकूं हासिल का जिसकी सूरत में दिखा नूर खुदा का
Prachi Mishra
वह भोजन का प्रथम कौर जब जिह्वा पर रखते तुम बाँध टकटकी तुम्हें ताकती कैसा अनुभव करते तुम क्या माँग रही ये दृष्टि हमारी भावों से वो सब कहते तुम अब ये खूब समझते तुम तीखा,मीठा,नमक आदि सब डाला चुन चुन मानक में कहीं मसाले की गमगम थी कहीं मलाई पालक में बस चित्र तुम्हारा था मानस पर कैसे भोजन ये चखते तुम अब ये खूब समझते तुम आशाएं कितनी पकीं आँच पर धीमी धीमी महकी सौंधी सी स्वेद समेटा मुख काँछ कर पल्लू की एक किनारी थी ताप भाप सब सुखद लगा जब सोचा कैसे हँसते तुम अब ये खूब समझते तुम अहा! रस आ गया भोज का यदि मुख भावों से कहते तुम पारितोषिक मिल जाता मुझको अधरों से कुछ ना कहते तुम हर घर की है यही कहानी क्या इतना भी करते तुम अब ये खूब समझते तुम ★★★ ©प्राची मिश्रा #poetessprachimishra ©Prachi Mishra #Thoughts
Prachi Mishra
कभी अंतस की पीर में कभी अतीत की तस्वीर में कभी व्यथा के संग में कभी मैं और तुम की जंग में कभी खामोशी के शोर में कभी बातों के शांत छोर में कभी आकाश के रंग में कभी शीतल पवन के अंग में खोज रही हूँ बहुत दिनों से जैसे कुछ खोया है मेरा न तन्हा हूँ न हूँ मैं उदास मेला सा रहता है हर पल आसपास न चिन्ता के साये हैं न है कोई आस फिर भी है क्यों मन में ये प्यास वो है क्या ? वो कैसा है दिखता? खोज रही हूँ बहुत दिनों से जैसे कुछ खोया है मेरा.. भौतिक सुखों की ये कैसी है माया सारे जग को कैसा है भरमाया उँगली पे कैसा नाच नचाया पल में टूटेगी ये मिट्टी की गुड़िया घुल जाएगी जैसे कागज़ की पुड़िया यूँ ही चलता रहेगा ये सारा कारोबार कोई तो बता दे सच्चे सुख का सार खोज रही हूँ बहुत दिनों से जैसे कुछ खोया है मेरा जिसका है जितना उतना ही मिलेगा ये मानव मन है कभी न भरेगा कुछ भी नहीं बस धुँआ ही धुँआ है न छुआ किसी ने न ये किसी का हुआ है जाने ये भटकन कहाँ खत्म होगी मिलेगी वो लौ कब दूर कब रज तम ये होगी कभी मुझ में कभी तुझ में खोज रही हूँ बहुत दिनों से जैसे कुछ खोया है मेरा ★★★ ©प्राची मिश्रा #poetessprachimishra ©Prachi Mishra #humantouch
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