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रजनीश "स्वच्छंद"

रजनीश "स्वच्छंद"

रजनीश "स्वच्छंद"

योगा दिवस: दोहे।।

योग बड़ा अनमोल है, मत जाना तुम भूल।
जीवन में शामिल करो, ये है जीवन मूल।।

जो जीने की लालसा, रोज करो तुम योग।
तनमन सब निर्मल करे, कैसा रोगी रोग।

पुरखे थे कह कर गए, बाँध चलो तुम गाँठ।
पश्चिम भी पूरब हुआ, बैठ न जोहो बाट।।

चेतन जो संसार है, योग रहा आधार।
क्यूँ जीवन तुम भागते, योग छुपा है सार।।

सृष्टि योग है आतमा, क्यूँ तकता आकाश।
कस्तूरी मृग नाभि है, ढूँढ़ बितायों साँस।।

©रजनीश "स्वछन्द"

©रजनीश "स्वच्छंद" #काव्ययात्रा_रजनीश

रजनीश "स्वच्छंद"

रजनीश "स्वच्छंद"

रजनीश "स्वच्छंद"

पदत्राण ।।

कुछ याद पुरानी आयी है,
सिहरन देखो फिर छायी है।
इस जीवन का हर एक सबक,
जूते ने याद करायी है।।

चूँ चूँ चीं चीं करता जूता,
मुस्कान बड़ी भरता जूता।
जो चलने की थी एक ललक,
पूरी मेरी करता जूता।

पढ़ने लिखने के दिन आये,
बेधड़क बताये बिन आये।
हाँ स्लेट नहीं अब कॉपी थी,
जो लिखा मिटाये बिन आये।

जब गणित पढा भूगोल दिखा,
भौतिकी रसायन गोल दिखा।
इतिहास रहा क्या मत पूछो,
तारीखों में भी झोल दिखा।

ऐसे पढ़कर मैं क्या पाता,
नम्बर बोलो फिर क्या आता।
मास्टर जी बड़े सलीके से,
घर आये ले पोथी छाता।

सोचो मुझपर क्या बीत रही,
भरभरा गिरी सब भीत रही।
बाबूजी से मैं क्या कहता,
जूते से मानो प्रीत रही।

जो सोचा था सब सच पाया,
जूते से कब मैं बच पाया।
इतिहास खुला सब बोल रहा,
इतिहास कहो कब रच पाया।

दनदना चले थे तब जूते,
कब हाथ टले थे तब जूते।
विज्ञान पे भी मन खीझ रहा,
क्यूँ नाथ बने थे तब जूते।

चमड़ा चमड़े से जा चिपका,
मैं खड़ा रहा था तब ठिठका।
कुछ याद नहीं गिनती भूला,
हाँ रोम रोम था तब सिसका।

वो बदल समय फिर आन पड़ा,
जूते ले मैं हूँ आज खड़ा।
बाबूजी मानो देख रहे,
मैं हूँ घिग्घी फिर बाँध खड़ा।

ये समय भला कब रुकता है,
है टीस बना ये दुखता है।
पर हाँ ये भी तो सच ही है,
सूरज ढल कर ही उगता है।

फिर भी मेरा जूता दे दो,
बचपन मेरा बीता दे दो।
माँ की गोदी और पितृ लाड़,
जो समय रहा जीता दे दो।

©रजनीश "स्वछन्द"

©रजनीश "स्वच्छंद" #काव्ययात्रा_रजनीश

रजनीश "स्वच्छंद"

कल कैसा होगा।।

सोचो ये कल कैसा होगा,
जैसा सोचा वैसा होगा?
मैं कलम धार सच कहता हूं,,
सुन लो कल क्या पैठा होगा।

संस्कार सँजोया कब तुमने,
करनी पर रोया कब तुमने।
निर्बल असहाय अमानव सा,
तू हाथ धरे बैठा होगा।

पत्थर बन पत्थर पूज रहा,
जब समय पड़ा तू मूक रहा।
अंधे बहरे की क्या दुनिया,
जलती रस्सी ऐंठा होगा।

सूरज लाली ले आयेगा,
पर सुबह नहीं तू पायेगा।
लाली होगी हर ओर मगर,
शोणित धरती फैला होगा।

ये नर क्यूँ आज नराधम है,
चहुँओर घिरा क्यूँ ये तम है।
कण कण जो पाप समाया है,
शापित मानव पैदा होगा।

अंधी जो दौड़ रही दुनिया,
लक्ष्मी सिरमौर रही दुनिया।
रिश्ते बाज़ार बिकेंगे फिर,
अपनापन बस पैसा होगा।

पाना ही है जो एक ललक,
धरती पायी पा लिया फ़लक।
परिवार धरा रह जायेगा,
जीवन खाली थैला होगा।

फिर रात कथा दुहरायेगी,
पौरुषता दम्भ दिखायेगी,
दरबार लगाये जायेंगे,
आँचल फिर से मैला होगा।

हर एक अक्षर काला होगा,
बल ने सच को ढाला होगा।
तलवार कलम को जीतेगी,
है सत्य सुनो ऐसा होगा।

सब सोच बहुत घबराता हूँ,
निःशब्द खड़ा निज पाता हूँ।
है हाथ कलम भी काँप रही,
जाने वो पल कैसा होगा।

©रजनीश "स्वछन्द"

©रजनीश "स्वच्छंद" #काव्ययात्रा_रजनीश

रजनीश "स्वच्छंद"

दोहा।।

यौवन-मद किस काम का, सड़क रहा बौराय।।
ज्यों पौधा दीमक लगे, बैठा जड़ ही खाय।।

©रजनीश "स्वच्छंद" #काव्ययात्रा_रजनीश

रजनीश "स्वच्छंद"

दोहा।।

निर्मल बालक मन रहा, जैसो साँचा ढाल।।
जैसा हलवाहा मिले, बैल चले वो चाल।।

©रजनीश "स्वच्छंद" #काव्ययात्रा_रजनीश

रजनीश "स्वच्छंद"

दोहा।।

ज्ञान बिना क्या तर्क है, होता क्या संतोष।।
निर्बल कब है शोभता, बीच समर में रोष।।

©रजनीश "स्वच्छंद" #काव्ययात्रा_रजनीश
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