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संतोष कुमार
आईना को देख मत शरमाइये, आग नयनो से न बरसाइये। नफरतों के बंधनों को तोड़कर। प्यार से मेरे गले लग जाइये। गीतिका।
गीतिका।
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सावन गीतिका उमड़ घुमड़ कर आए बादल,ढोल बजाते है ।। पानी की लहरों से मिल कर ,प्रलय मचाते है ठंडी ठंडी गिरे फुहारें, मन पुलकित करती । दादुर मोर पपीहा के स्वर,मन हर्षाते है।(2) नव उमंग नव भाव मनोहर, होते हैं निश दिन बचपन में बीते दिन सुंदर,खूब रिझाते है (3) हरियाली की चूनर ओढ़े,धरा चहकती है बरखा के मेघ सदा से ही ,प्यास बुझाते हैं (4) सावन मास रही बेचैनी ,विरहन है व्याकुल पर साजन के नये बहाने,मुझे सताते हैं (5) हरित आवरण ओढ़ प्रकृति भी,यही जताती है सुख दुख दोनों ही अपने बस,असर दिखाते हैं (6) घुटती हूं दिन रैन पिया मैं, तुम्हारी यादों में दिल के सच्चे भाव नयन से, जल बरसाते हैं।(7) डॉ रेखा जैन शिकोहाबाद ©rekha jain #सावन गीतिका
#सावन गीतिका
read moreदिनेश कुशभुवनपुरी
मातृ शक्ति को समर्पित गीतिका– नारियां जीवन का आधार नारियाँ। प्राकृतिक श्रृंगार नारियाँ॥ वात्सल्य की देवी हैं ये। करती हैं उद्धार नारियाँ॥ हर घर में है शोभा इनसे। बाँटे सब में प्यार नारियाँ॥ माँ पत्नी बेटी अरु बहनें। करें कई किरदार नारियाँ॥ सकल विश्व में नव जीवन को। देती हैं आकार नारियाँ॥ ममता से परिपूरित हैं ये। ईश्वर की अवतार नारियाँ॥ काली का जो रूप धरें तो। बरसातीं अंगार नारियाँ॥ लक्ष्मी गौरी और शारदा। सरिताओं की धार नारियाँ॥ सुंदरता की मूरत हैं ये। कवियों की उद्गार नारियाँ॥ आये जब जब कठिन काल तब। करती बेड़ा पार नारियाँ॥ © दिनेश कुशभुवनपुरी® ©D K #गीतिका #नारियां
दिनेश कुशभुवनपुरी
कà¥à¤¯à¤¾ लिखूठक्या लिखूँ संवेदनाएं, क्या लिखूँ संत्रास मैं। क्या लिखूँ अब स्वप्न सुंदर, क्या लिखूँ आभास मैं॥ क्या लिखूँ आशा हृदय की, पीर जब उसमें भरी। क्या लिखूँ हरियालियाँ फिर, क्या लिखूँ मधुमास मैं॥ क्या लिखूँ परमार्थ सेवा, स्वार्थ जब पग पग मिले। क्या लिखूँ मैं साधना फिर, क्या लिखूँ विश्वास मैं॥ क्या लिखूँ कोई व्यथा जब, फूट हर उर में पड़ी। क्या लिखूँ मैं एकता फिर, क्या लिखूँ अब आस मैं॥ क्या लिखूँ अब देश के प्रति, भक्ति जब है ही नहीं। क्या लिखूँ फिर क्रांतियां मैं, क्या लिखूँ अहसास मैं॥ क्या लिखूँ मैं कामना अब, प्रीति के परवाज का। क्या लिखूँ श्रृंगार रस भी, क्या लिखूँ अब रास मैं॥ क्या लिखूँ मैं बदनसीबी, आज अपने भाग्य का। क्या लिखूँ अपनी कहानी, क्या लिखूँ कुछ खास मैं॥ ©दिनेश कुशभुवनपुरी #गीतिका #क्या_लिखूँ
दिनेश कुशभुवनपुरी
गीतिका: गजल हो गये! नेत्र मिलकर हमारे सजल हो गये। प्रेम के गीत हम, तुम गजल हो गये॥ चाँदनी रात में भी अँधेरा मिला। बिन तुम्हारे अमियरस गरल हो गये॥ मन लहर की तरह उठ रहा गिर रहा। देखकर भाव ये हम विकल हो गये॥ हाथ में हाथ तुमने हमारा लिया। दो मुदित मन मिले खिल कमल हो गये॥ थी हमेशा हमारी जटिल जिंदगी। पास आकर तुम्हारे सरल हो गये॥ साथ जबसे मिला, मिल गयी जिंदगी। तब लगा आज हम भी सबल हो गये॥ एक विश्वास था तुम मिलोगे कहीं। इसलिए देख लो हम सफल हो गये॥ साथ मेरे चले तुम कदम दर कदम। नेक मेरे इरादे अटल हो गये॥ अनमने हो रहे थे तुम्हारे बिना। तुम पधारे यहाँ हम नवल हो गये॥ बूँद बनकर पड़े तप रही भूमि पर। लहलहाते हुए हम फसल हो गये॥ दूर मन से प्रिये हर बुराई हुई। अंग उर मन सकल ही विमल हो गये॥ ©दिनेश कुशभुवनपुरी #गीतिका #प्रेम_के_गीत #गजल_हो_गये
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गीतिका:– बूंद बादलों से बूँद गिरकर सागरों में जो समायी। मस्त लहरों में बदल कर जा तटों के अंग भायी॥ बूँद जो जाकर छुपी वारीश की गहराइयों में। सीपियों के साथ मिलकर मोतियों की लड़ बनायी॥ प्यास चातक की बड़ी थी आस पहली बूँद की थी। स्वाति की बूँदें गिरी जब प्यास तब उसने बुझायी॥ बर्फ़ का अंबार लगता बूँद बूँदों से मिलें जब। फिर पहाड़ों पर बिखर के, श्वेत चादर सी बिछायी॥ बूँद धरती पर पड़ी जो, ताल नदियां बाग चमके। फिर किसानों की फसल भी, झूमकर खुश लहलहायी॥ ©दिनेश कुशभुवनपुरी #गीतिका #बूंद #बादल #सागर