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Rishika Srivastava "Rishnit"
शीर्षक: तृष्णा (प्यास) ******************* हर लम्हा जैसे भटक रही है.... रूह मेरी निःशब्द होकर खण्डरों में.... भटक सा गया है मन का चैन.... शब्द विहिन होकर इंतेजार की दल-दल में ..,,, कलम की स्याही भी असमंजस में है अब,,.. शब्द कुछ मिल नहीं रहे है इसको..,,, दूर-दूर तलक बस एक तृष्णा है फ़ैली,, ख़ुद ही हिरण बन भटक रही है.. जीवन के इस जंगल में.... कभी मरुस्थल के तपते रेत पर,,,.. तो कभी बेतहाशा चले जा रही है..,, इस छोड़ से उस छोड़ तक.... कभी ऊँचे डाल पर बैठी पंछी की करलव सुन..,,,, प्रहलादित होकर कई बार लड़खड़ाते क़दमों से..,, अंतर्मन की प्यास लिए बस भाग रहा है ये मन..,, हर शहर, हर गली, हर मुहल्ले वन-वन है.... कस्तूरी सा प्रेम मेरा ढूँढ़ रहा तुझे जग-जग है.... पर ख़ुद के अंदर जब झाँका तो पाया तुझे अपने मन में है। ©Rishika Srivastava "Rishnit" #uskebina #poem #तृष्णा #09:12