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Raees Mann Tilhari
غزل چراغِ دل نہ جلائیں گے اب کسی کے لیے۔ کباڑ کھول دیے ہم نے روشنی کے لیے۔ تری گلی سے جو مایوس ہو کے لوٹے تو۔ ٰ قدم بڑھے ہی نہیں پھر کسی گلی کے لیے۔ خطوط کمرے سے سارے نکال پھینکے ہیں۔ سکون چاہیے اب مجھ کو زندگی کے لیے۔ مجھے کسی کے تصوّر کی کیا ضرورت ہے۔ ترا خیال ہی کافی ہے شاعری کے لیے۔ مجھے حیات میں کیسے سکون آئے گا ۔ کسی کو چھوڑ کے آیا ہوں میں کسی کے لیے۔ رئیس "من" تلہری ©Raees Mann Tilhari #ग़ज़ल
सतीश तिवारी 'सरस'
मन का तोता तड़पे लेकिन मैना नहीं मिली, तन्हाई में जिये रात-दिन मैना नहीं मिली! ००० चले ज़िन्दगी की यह गाड़ी दो चक्रों पर ही, सोच ये मन में आती पल-छिन मैना नहीं मिली! ००० ढूँढ़-ढूँढ़कर नयन थके पर मीत नहीं पाया, गुज़र रहे अब दिन बस गिन-गिन मैना नहीं मिली! ००० लगें फ़ेसबुक़-व्हाट्सऐप भी यार! हमें बोझिल, थके उन्हें हम कर-कर लागिन मैना नहीं मिली! ००० बहनें बहुत मिलीं पर उनको नहीं मिली भाभी, 'सरस' प्रेम की कोई साथिन मैना नहीं मिली! ©सतीश तिवारी 'सरस' #ग़ज़ल
Pragya Bisht
राहें उन्हें मुबारक हो जिन्हें छत तक जाना है तुम्हें अपना रास्ता स्वयं बनाना है ©Pragya Bisht ग़ज़ल
Dr.Minhaj Zafar
~ ग़ज़ल ~ वो मुझसे आ गये मिलने किसी बहाने से नहीं की देर उन्हें फिर गले लगाने से ज़बानें बंद थीं आलम अजब सुकूत का था निगाहें गुफ़्तगु करती रहीं ठिकाने से ये आग या तो जलाती है या बसाती है दिलों की आग कहां बुझती है बुझाने से मैं उनकी आंख का आंसू न बन सका तो क्या वो चश्म-ए-मन में बसे हैं अदम ज़माने से • मिन्हाज ज़फ़र • #ग़ज़ल
Manju kushwaha
ग़ज़ल बहर -1222. 1222. 1222. 1222 तुम्हें जो गर मुहब्बत थी जताने ही चले आते, कटे कैसे तुम्हारे दिन बताने ही चले आते ll खुशी हमको हुई ये जान आए तुम शहर मेरे हँसाना गर नहीं मुमकिन सताने ही चले आते ll बड़ा ही प्यार दिखता था निगाहों में कभी तेरे, वही फिर प्यार लेकर तुम रिझाने ही चले आते ll कहीं तो कुछ बचा होगा हमारे दरमिया अब भी, उन्हीं वादे वफ़ा को फिर निभाने ही चले आते ll शिकायत मैं करूँ कैसे रहा जब हक नहीं तुम पर, तुम्हें भी दर्द होता है दिखाने ही चले आते ll मिली रुसवाइयाँ तुमको, हुए हम भी कहाँ पूरे, गिले शिकवे दिलों में ले सुनाने ही चले आते ll मंजू कुशवाहा ✍️ नोएडा उत्तरप्रदेश ©Manju kushwaha ग़ज़ल
Lokesh Kumar
जान लेकर हथेली पे जाता रहा वक़्त के साथ खुद को भुलाता रहा ज़िन्दगी तेरी कीमत से अंजान था हर घड़ी का किराया चुकाता रहा कुछ खता भी न थी और रूठा था वो मैं उसी शख़्स को क्यूँ मनाता रहा मैं बिखर सा गया टूट कर ज़ीस्त में और फिर अपने टुकड़े उठाता रहा उसकी मर्ज़ी थी चाहे न चाहे मुझे एक रिश्ता उसी से निभाता रहा दर्द हीं से रहा वास्ता उम्र भर ये अलग बात है मुस्कुराता रहा जिसकी गलियां सजायी गुलों से वही मेरे तलवों में क्या क्या चुभाता रहा कह रहें हैं दग़ाबाज तुझको "तरब" जिसको इल्जा़म से तू बचाता रहा लोकेश सिंह ©Lokesh Kumar #ग़ज़ल