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कनक लता " ज़ज्बात "
फ़रियाद रूई के महीन फाहों - सी कोमल पिघलते बर्फ़ के बुरादे - सी ठंडी वो शरद की शीतल सुबह जैसे आसमाँ सफेद बादलों संग जमीं पे उतर आया हो ! फाहों से गुजरती मद्धिम हवा का स्वर कानों में हूक बोलता - सा सब आँखों के सामने होकर भी इक साया सरमाया - सा ठंडी झीनी धुंध की चादर - सा वो कुहासा अलसाया - सा ! #कुहासा
Pushpendra Pankaj
उफ यह कुहासा, धुंधली सी आशा , डर मत ,धीमा चल, छोङकर हताशा । अभी भी शेष है, जीत की प्रत्याशा, बढ़ने पर चखेगा तू पुरुस्कार का बताशा ।। ©Pushpendra Pankaj कुहासा
Krishna ka kavya
आसमान से कुहासा की घनी घटा, कुछ , इस अंदाज में हटी । मानो जैसे , दुआ कबूल हुई हो । वर्षों की उलझन पल भर में मिटी , जीवन में आशा की नई किरण छिटी । ©Krishna ka kavya कुहासा छाती #Prayers
Ghumnam Gautam
यां कुहासा है वां कुहासा है हर जगह इक निशां कुहासा है ऐसे में कैसे हम कहानी कहें! सर्दी की दास्तां कुहासा है ©Ghumnam Gautam #sadak #कुहासा #कहानी #दास्तां #ghumnamgautam
अज़नबी किताब
नाटक.. रंगमंच... कलाकार... कला... दर्शक.. कुछ ऐसा हुआ, में रंगमंच पे खड़ी थी, और मेरी कला मेरा हाथ थामे | दर्शक मेरी कला से मुझे पहचानते थे.. क्या खूब कला थी, खुदा की देख हुआ करती थी | एक बार बोली बात, में जमी को ख़त्म हो ने पर भी निभाती थी, कला थी.. वचन निभाने की, नाटक बन गयी.. रंगमंच पे उस खुदा के, में आज एक कटपुतली बन गयी... वचन निभाती नहीं, ऐसा सुना है मेने, दर्शकों से | क्या कहु, कला खो गयी, पर ये कला उनके लिए कायम है, जो सही में आज भी वचन को समझते है | कला खुदा की देन होती है, खुदा भी ख़ुश होते होंगे मेरे वचन ना निभाने से.. -अज़नबी किताब नाटक..
Arora PR
स्वप्नलोको के प्रलोबन मुझे कभी सममोहित नहीं कर सकते क्योकि मैं हर स्वप्न कोबन्द आँखों का नाटक ही समझता हूँ ©Arora PR नाटक
Vrishali G
जीवनाच्या नाटकात सहभाग सगळ्यांचा असतो पण आपली भुमिका नाही वठली तर सारा तमाशा होऊन जातो नाटक
कवि मनोज कुमार मंजू
आएगी निराशा छाएगी कुहासा पर नहीं रुकना तुझे नहीं झुकना मन में तू ठान तेरा है जहान ©कवि मनोज कुमार मंजू #निराशा #कुहासा #मनोज_कुमार_मंजू #मँजू #merasheher
Babli BhatiBaisla
झूठे और ओछे मक्कार महात्मा को कोई नहीं पूछता काले पड़ गए मैले मनको को कोई नहीं पूजता आर्यो की धरती पर शास्त्रों का ऊंचा स्थान है भारत मां के शास्त्रियों की विश्व में अलग पहचान है लाल बहादुर शास्त्री हो या धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री दोनों ने साबित कर दिखाया गरीबी नहीं पिछाड़ती महानता में पिछड़ जाते हैं धनाढ्य भी नीयत से बहुत मूर्ख लगते हैं भूख हड़ताल का नाटक करते हष्ट-पुष्ट काटा है लम्बा सफ़र आंखें मूंद कर अनपढ बहुत थे पढ़ कर समझ गए सभी जयचंद और शकुनि कौन थे बबली भाटी बैसला ©Babli BhatiBaisla नाटक