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मañjü pãwãr
Antima Jain
HINDI SAHITYA SAGAR
HINDI SAHITYA SAGAR
कविता : "कब की छूट गईं वो राहें" आज सुबह वो घर से निकले, पहन के हाँथों में दस्ताने, दस्तानों में भी ठण्डे थे, कंपित हस्त हिमानी पाले। कोहरा छाया था सड़कों पर, पथ भी नजरों से ओझल था। तन भी ठिठुर रहा था थर-थर, मन भी बेहद बोझिल था। अंगुश्ताने भी पहने थे, ऊनी-अच्छे अंगुश्ताने। न ही ठंड अधिक थी, फिर भी ठंडी थी बाहें। ठंडी थी बस बाहें, या फिर पूरा तन ठंडा था, तन ठंडा था, मन ठंडा था, या फिर जीवन ही ठंडा था। उसके मन को जान न पाए, क्यों हम थे इतने अनजाने? मन मेरा उद्विग्न हो उठा, क्या थे हम इतने बेगाने? शायद! उसकी सिसकारी से, उर में जलती चिनगारी से, पलकों की एकटक चितवन से, शायद अब तक थे अनजाने। जिन पर चलकर हमें था जाना, कब की छूट गईं वो राहें। अब तो केवल शेष बची थी, दर्द भरी सिसकी और आहें। -✍🏻शैलेन्द्र राजपूत उन्नाव, उत्तर-प्रदेश 15.01.2023 ©HINDI SAHITYA SAGAR कविता : "कब की छूट गईं वो राहें" आज सुबह वो घर से निकले, पहन के हाँथों में दस्ताने, दस्तानों में भी ठण्डे थे, कंपित हस्त हिमानी पाले। कोहर
Nisheeth pandey
होनी-अनहोनी से ढक गया है निशीथ की पहर । सोने-चाँदी जैसे मन रहते थे अब मन है पत्थर के घर । कभी बसते थे ख़ूबसूरत नज़ारे नज़रों में , अब मैं परेशान हूँ वो खूबसूरत नज़ारे है किधर । रंग रूप सुन्दर प्रकृति पर बर्फ की सफ़ेदी लिए, कभी लगते थे रास्ते मुस्कराए मुझे देखकर । प्रकृति के सुंदर चेहरे को देख मेरा मन सुन्दर , अक्सर सोचता काश यहां होता सनम एक अपना भी घर । सुनकर छू कर निकलती हवाएं पगडंडियाँ हँस पड़ीं, तू गिर मत अड़ा रह देख इतना न डर हौसला बुलंद कर । ठण्डी-ठण्डी हवाएँ गले से मिलती, और कहने लगती हो सुहाना सफ़र । फिर न जाने कहाँ से आया अनहोनी चीड़ के पेड़ तकदीर में उड़ने लगें, तकदीर की टहनियाँ टूटने लगे झड़ने लगे उड़ते परिन्दों के पर । जो दिल था मेरा भी प्रकृति की तरह फूल-सा, क़हर पर कहर इस पे होने लगा मौसमों का बेअसर । मुस्कराते हुए हँसी वादियाँ गुमनामी से ढक गए, अनहोनी कह रही हैं हमें देखिएगा अब हर तरफ इधर उधर । बर्फ़ की सीढ़ियाँ, बर्फ़ की चोटियाँ हो गई अंधी बस आवाज़ आती हैं बुलाती हमें आइएगा इधर । तुम्हारे मेरे जीवन से जाने के बाद तेरी जुल्फ़ों-सी काली हो गयी रातेँ सारी, बिछी चाँदनी जिसे ओढ़ता था है अब किधर । न जाने किसकी काली नज़र ओढ़ ली , यारो ! लड़ने लगा मौत से, अनहोनियों पहाड़ों सी ऊंची है आती नज़र । ज़िन्दगी ख़ूबसूरत थी पहाड़न जैसी बनाये थे चाल, हर कठिनाई के साथ जिया और हार कर भी जीता पहाड़ी सफ़र । हम संधर्ष के अर्थ अनर्थ दोनों रस जीवन में पाए नए, देख देख जीवन का हर पहलू ' निशीथ ' मन हो गया पथर । #निशीथ ©Nisheeth pandey #DhakeHuye होनी-अनहोनी से ढक गया है निशीथ की पहर । सोने-चाँदी जैसे मन रहते थे अब मन है पत्थर के घर । कभी बसते थे ख़ूबसूरत नज़ारे नज़रों में
kanta kumawat
शरद सा मोसम आँखे नम है ठण्डी हवाएं आरजू सें सिस्तम है खोफ नहीं धूप में रहने का बारिश में क्या होशले कम है। ©kanta kumawat #dilkibaat शरद सा मोसम आँखे नम है ठण्डी हवाएं आरजू सें सिस्तम है खोफ नहीं धूप में रहने का बारिश में क्या होशले कम है।
सुनिल शर्मा
kanta kumawat
bharmalchoudhary7