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vishwadeepak
पगडंडियों पे चलके, चौराहे तक आया हूँ, मंजिल है किस ओर, जाना है कहां?, अभी तक जान न पाया हूँ, मैं हूँ और बस मेरा साया है, बाकियों को काफी पीछे छोड़ आया हूँ, धूप छाँव का डर नहीं मुझे, अंधेरों में भी सीना तान कर आया हूँ, रूठी है दुनिया मुझसे मेरी, न जाने क्यूँ?, इन्हीं कारणों का पता लगाने आया हूँ, हांथ पकड़ कोई रास्ता बता दे, कितना लंबा सफर तय कर आया हूँ, या मैं चलूँ मन से मन की ओर, कहीं खा न जाऊँ धोखा जैसे पहले भी खाया हूँ, फिर लौट न आ मिलूँ कहीं वापस, इतनी मेहनत करके जिसके लिए आया हूँ, आ नहीं रहा समझ में कुछ भी, क्या करूँ मैं बहुत घबराया हूँ, एक दिशा सही मिल जाए, देखेंगे फिर लोग मंजिल कैसे पाया हूँ, पगडंडियों पे चलके, चौराहे तक आया हूँ........ लेखक :- दीपक चौरसिया ©Deepak Chaurasia #my poetry #पगडंडियों पे चलके, चौराहे तक आया हूँ, मंजिल है किस ओर, जाना है कहां?, अभी तक जान न पाया हूँ, मैं हूँ और बस मेरा साया है, बाकियों
Axar pathak
Dr. Shakuntala Sarupariya
Waseem Siddiqui
शिखा शर्मा
Dr. Shakuntala Sarupariya
Pushpvritiya
लगने दो उम्रदराज़ मुझे, मेरी उम्र मुझे बतलाती हैं, कितना लंबा तुम्हारे साथ चली...... कितने बसंत को देखा हैं तुम संग कितनी बरसात चली....... कितने स्वप्न गढ़े संग में, कितने जतन से पूर्ण किया, कितने उजाले हर्ष के, कितने दुखो की रात ढली....... लगने दो उम्रदराज़ मुझे,मेरी उम्र मुझे बतलाती है, कितना लंबा तुम्हारे साथ चली............... @पुष्पवृतियां . . . ©Pushpvritiya हैप्पी वाली एनिवर्सरी महाशय लगने दो उम्रदराज़ मुझे, मेरी उम्र मुझे बतलाती हैं, कितना लंबा तुम्हारे साथ
Divya Joshi
आस की देहरी पर विश्वास का एक दीपक जलाया है, बैरी हवाएं हमेशा की तरह फिर चल पड़ी हैं मुझे अंधेरों की ओर धकेलने! कह दो इनसे बस बहुत हुआ, एक जन्म में सारी परीक्षाएं न ले! नहीं बची हिम्मत, न इच्छा अब तपकर कुंदन बनने की! मैं अय ही बनी रहूँ बस, अब यही श्रेयस्कर है। जब जब जो जो माँगा न, तब तब वो सब मिला है! पर हर बार इस तरह मिला कि उसे मांगने का अफसोस, मलाल घर कर गया चित्त में! क्योंकि वो मांगी मुरादें हर बार इस अजीब तरीके से पूरी हुई जिसके मिलने या पूरी होने पर ख़ुशी से ज्यादा तकलीफ़ मिली। इस बार कुछ वक्त माँगा था। कुछ खाली वक्त जो मेरे अंदर की खाली दरारों को भर सके जो जिम्मेदारियां खुद पर ओढ़े हुए थी, उनसे कुछ समय के लिए विराम माँगा था। जिससे आत्मचिंतन कर सकूं। नए रास्ते तलाश सकूं और सफलता के जिस मुकाम पर मैंने संघर्षों के बाद पहला कदम रखा था, उसकी अनगिनत सीढ़ियों को फतह करने के लिए बनाई अपनी रणनीति पर चल सकूँ। वह विराम, वह वक्त अब मिला। मगर इस तरह मिलेगा कभी कल्पना भी नहीं की थी। अब पुरानी जिम्मेदारियां कम हुई हैं, नई बढ़ी हैं, ढेर सारा खाली वक्त है लेकिन, चिंतन करने वाले हिस्से को चिंताओं ने घेर लिया है। इस मिले वक्त के साथ एक झंझावात, एक तूफान उपहार में मिला। जिसने पूरे जीवन मे उथल पुथल मचा दी है। अब बचा वक्त मेरे लिए नहीं सोचता। इस तूफान से निकलने के रास्ते खोजता है। और रास्ता बेहद कठिन है लंबा है। वो खाली वक्त जिंदगी की ढलती शाम में ही मिलेगा शायद उन्हीं अनगिनत जिम्मेदारियों के साथ जिनसे अभी कुछ वक्त के लिए विराम मिला है। मन के मोती 18 अप्रैल 202 ©Divya Joshi मझधार में आस की देहरी पर विश्वास का एक दीपक जलाया है, बैरी हवाएं हमेशा की तरह फिर चल पड़ी हैं मुझे अंधेरों की ओर धकेलने! कह दो इनसे बस बहुत