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Ram Yadav
#जंगलों में जाकर सुकूं मिलता है मुझे जानवर अक्सर मेरे #दोस्त हो जाते हैं... #समंदर कहकहाते हैं मेरे साथ बैठकर #पहाड़ मुझसे मिलकर मोम हो जाते हैं... #फूल बिछे जाते हैं राहों में मेरी #झरने मुझसे मिलकर बहुत खुश हो जाते हैं... #परिंदे डाली छोड़ मेरे पास आ बैठते हैं #नदियां और #दरख़्त मेरे साथ-साथ गाते हैं... #भूतों को अक्सर मैं पसंद आ जाती हूं #प्रेतों को मेरे किस्से बहुत लुभाते हैं... #चाँद मेरी खिड़की पर रोज दस्तकें देता है #बादल घुमड़ घुमड़कर आवाज़ लगाते हैं... #बारिशें रो पड़ती हैं मेरी उदासी देखकर मैं रूठ जाऊं अगर ये #मौसम मुझे मनाते हैं... बड़ा #नाज़ आता है कभी-कभी ख़ुद पर #इंसाँ इक ना हुआ मेरा ये सब मुझपर मरे जाते हैं... ना जाने क्यों लगती है ये #प्रकृति मुझे अपनी ना जानें क्यों ये सब मुझ पर #जां लुटाते हैं !! -मोनिका ©Ram Yadav #Nature
Deepak Aggarwal
वो #जंगलों और #झाड़ियों में सो #जाते हैं ताकि हम #घरों में #आराम से सो #सके। Indian Army 🙏🏼😍 Jai Hind 🇮🇳🇮🇳❤️ Ram Ram sarya ne 🙏🏼😊
रजनीश "स्वच्छंद"
नयी सभ्यता।। चलो फिर से जंगलों, पहाड़ों, सबको आज़ाद करते हैं। लुढ़कने दो पत्थरों को, टकराने दो पत्थरों को, निकलने दो चिंगारी, एक आग लगने दो, एक नयी सभ्यता संस्कृति, फिर से आबाद करते हैं। चलो फिर से जंगलों, पहाड़ों, सबको आज़ाद करते हैं। बहने दो नदियों को, अविरल, निर्बाध। मत रोको, बहने दो बिन बांध। काट डालने दो किनारों को, बहा ले जाने दो चट्टानों को। बंनाने दो एक मैदान, नए युग की जन्मस्थली का निर्माण। फिर से हड़प्पा, फिर से मोहनजोदड़ो, फिर से बहने दो सिंधु को। होने दो विस्तार, नवपल्लवों का विकास, फिर विस्तरित होने दो बिंदु को। चलो एक ये पुण्य-कार्य, सब मिल निर्विवाद करते हैं। चलो फिर से जंगलों, पहाड़ों, सबको आज़ाद करते हैं। बह जाने दो मेरा तेरा के भाव को, बह जाने दो पूर्ण-आभाव को। शीतलता पुनरावृति में है, खण्डित हो जाने दो ठहराव को। एक नई संस्कृति की आहट, पड़ने दो कानों में। जो भी काटी फसल अब तक, पड़े रहने दो खलिहानों में। मनुजता से पशुता की यात्रा, कर ली है पूरी हमने। है समय पुनरुत्थान का, चलो फिर से गढ़ने सपने। चलो परमात्म शून्य में, लघुतम अति सूक्ष्म, फिर से मिलने दो परमाणुओं को, आरम्भ एक अनन्त का। एक तात्विक निर्माण, एक सात्विक निर्माण, निर्मित होने दो धातुओं अधातुओं को, विस्तार एक समरस पंथ का। समा शून्य में पुनः, एक गर्जना, एक नाद करते हैं। चलो फिर से जंगलों, पहाड़ों, सबको आज़ाद करते हैं। ©रजनीश "स्वछंद" नयी सभ्यता।। चलो फिर से जंगलों, पहाड़ों, सबको आज़ाद करते हैं। लुढ़कने दो पत्थरों को, टकराने दो पत्थरों को, निकलने दो चिंगारी, एक आग लगने दो,
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