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इकराश़
एक नामुकम्मल दास्तां (भाग: पंचम (प्रथम) ) अनुशीर्षक में पढ़ें **'मध्यांतर' के बाद की कहानी ज़ारी है। Shraddha जी। ये आपकी वजह से है और आपके लिये है। शुक्रिया प्रेरित करने के लिये की इसे मैं आगे बढ़ा सकूँ। इसके पहले के भाग पढ़ने के लिये #eknaamuqammaldaastaan इस लिंक पर आप क्लिक कर सकते हैं। ******************************* वो अपनी नई ऑफ़िस में एच आर डिपार्टमेंट में फॉर्म भर रहा था। जोइनिंग फोर्मलिटीज़ पूरी कर रहा था जब एक मैसेज नोटिफ़िकेशन आया उसके फेसबुक मेसेंज़र पर।
इकराश़
एक नामुकम्मल दास्तां (भाग: चतुर्थ ) अनुशीर्षक में पढ़ें **ये भाग 'मध्यांतर' है। सूकून से पढ़ियेगा। 'दुनिया से दूर जा रहा हूँ, माँ तेरे पास आ रहा हूँ। मैं भी ये गीत गा रहा हूँ, माँ शेरावालिये,माँ मेहरावालिये, ऊँचे पहाड़ावालिये।' बस यही गुनगुना रहा था वो, और चलता जा रहा था लगातार। अट्ठारह किलोमिटर लम्बी चढ़ाई थी माँ वैष्णो देवी के द्वारे की। पैरों में तक़लीफ हो रही थी पर मन अडिग था उसका। एक हाथ में सिंदूर की डिबीया थी छोटी सी जिसे वो कस के हाथों में दबा कर आगे बढ़ रहा था माता रानी से मिलने। उसे शायद कोई होश ही नहीं था। जुबां और दिल में माँ का नाम था और यादों में बीते हुए दस महीने। हाँ दस महीने ह
इकराश़
एक नामुकम्मल दास्तां (भाग: तृतीय (द्वितिय)) अनुशीर्षक में पढ़ें **ये भाग ज़रा लम्बा है। इत्मिनान से पढ़ियेगा। बात बहुत बड़ी थी। लेकिन उसके लिए वो इतनी बड़ी वजह भी नहीं बन सकती थी कि, वो अपनी जान को छोड़ दे। उसने अपनी जान से कहा कि वो चिंता ना करे, वो उससे बहुत प्यार करता है, और हमेशा करेगा और पूरी ज़िन्दगी में कभी भी ये बात उन दोनों के रिश्ते पे असर नहीं डालेगी। वो अब भी रोते जा रही थी। जिसकी आँखों में वो एक बूँद आँसू नहीं देख सकता था, वो उसके सामने रोये जा रही थी। और वो कुछ भी ना कर पा रहा था। क्या करें वो? जल्दी ही उसे तरक़ीब ढूँढनी थी। पता नहीं अचानक क्या हुआ कि उसने कहा, "जान रोना बंद कर दो, वरना कान के
इकराश़
एक नामुकम्मल दास्तां (भाग: तृतीय (प्रथम)) अनुशिर्षक में पढ़ें माँ ने उसे कम से कम पच्चीस बार फ़ोन मिलाया होगा। हर बार एक ही ज़वाब, "जिस ग्राहक से आप बात करना चाह रहे हैं, वो या तो बंद है या पहुँच से बाहर है" आता था। आज उसका जन्मदिन था। पर वो तो सुबह ही घर से निकल गया था ये बोल के कि वो सीधे रात को आयेगा घर और उसका फ़ोन भी दिन भर बंद रहेगा। क्या करता वो किसी से भी जन्मदिन की बधाई ले कर। वो तो कब का अंदर से मर चुका था। पूरे दो महीने और सात दिन हो गये थे। बस निस्प्राण ही तो था। क्यूँकी उसकी जान तो उसे छोड़ कर कब का जा चुकी थी। इसिलिए उसने अपना फ़ोन रात साढ़े ग्यारह
इकराश़
एक नामुकम्मल दास्तां (भाग: द्वितीय) अनुशिर्षक में पढ़ें उसकी आवाज़ पहली बार सुनी थी रेडिओ पे। आवाज़ ऐसी तो नहीं थी, कि सुनते ही कोई भी फिदा हो जाए उस पे। पर कुछ तो था। शायद उसके बोलने का अंदाज। या फिर, उसकी बातें। या शायद उसके विचार। मन को मोह लिया था उसने पहली ही बार में। समझ ना आया था उस वक़्त, कि कैसे उस लम्हें को रोक लूँ, कैद कर लूँ उसकी आवाज़ को अपने दिल के सबसे महफूज़ कोने में, जिसे जब मन किया सुन लिया। एक बार, दो बार, बार-बार। वो कोई संचालक नहीं था अपितु एक श्रोता था बस, जो उस रेडिओ शो पर फ़ोन करता था, और अपने दिल की बात रेडिओ पे सुना जाता था। यूँ
इकराश़
इक ना-मुक़म्मल दास्तां - भाग: प्रथम (अनुशिर्षक में पढ़े) उसे पहली बार इश्क़ हुआ था शायद। यूँ तो जाने कितनी बार हुआ था। पर था एकतरफा हर बार। होता भी क्यूँ ना। अजीब सा दिखता था वो। फूहड़ सा। बचपन से ही तोंद निकली हुई थी उसकी। बड़ी सी ऐनक लगाता था, साँवले से चेहरे पे। हाइट भी कुछ खास नहीं थी। चलता-फिरता बिन पैंदे का लोटा लगता था। और जब बोलता था, तो तुतला के बोलता था। 'र' को 'ल' का उच्चारण कर देता था। उसे तो पता भी नहीं चलता कब 'र' की 'ल' निकल गया उसके मुख से। वैसे तो सब कहते थे की दिल का बहुत अच्छा था वो। पर क्या दिल सब कुछ होता है? होता होगा, पर उसके लिये शायद नहीं था। क्यूँकी किसी ने उसका दिल देखा कहाँ। खैर, मुद्दे पे आते हैं। मुद्दों से भटकने की पूरानी बिमारी है मेरी। नज़र-अंदाज कर दिजियेगा। तो हुआ यूँ कि साहब को इश्क़ हुआ। हुआ भी किससे? इक परी से। वो परी जो शायद आसमां से उतरी थी। एकदम गोरी-चिट्टी, मलाई के रंग जैसी। काले लंबे घने बाल। तीखे-नैन नक्स़ और सूर्ख गुलाबी भरे से होंठ। हँसती थी तो गालों में गड्ढे पड़ जाते थे। चलती थी तो लगता था मद्धम हवा जैसे बह रही हो। जब बोलती थी तो लगता था मानो कोयल की मीठी आवाज़ में जैसे किसी ने जहां भर की मिश्री और शहद घोल दी हो। और जब वो नखरें दिखाये तो मानो मेनका की अदायें भी उसके आगे फींकी पड़ जाये। बस कुछ ऐसी थी उसकी 'जान'। हाँ 'जान'ही तो कह के बुलाता था उसे। और जान से ज्यादा शायद मोहब्बत भी करता था। इसिलिए तो उसके घर में उसकी जान के बारे में सबको पता था। माँ नाराज़ थी। होती भी क्यूँ ना? दूसरे जात की जो थी। माँ का धर्म ना भ्रष्ट हो जाता। पर वो तो अंधा था मोहब्बत में उसकी। मगर गलती भी क्या थी उसकी? पहली दफ़ा ज़िंदगी में उसे किसी ने सीने से लगाया था, किसी ने उससे एक दोस्त से ज्यादा मोहब्बत की थी। किसी ने सिर्फ उसका दिल देखा था। वो इस दुनिया की सबसे खुबसूरत लड़की थी उसके लिए, मगर उस लड़की के लिए वो ही उसका राजकुमार था, उसका सब कुछ था। फूला नहीं समाता था वो। चीख चीख कर दुनिया से कह देना चाहता था कि ओ इस दुनिया की सबसे खुबसूरत परी का हमसफ़र है। और उससे ज्यादा खुशकिस्मत इस दुनिया में कोई होगा नहीं। इश्क़ ही था शायद। पता नहीं। आज तक समझ नहीं पाया। इश्क़ था या उसके अहं की संतुष्टी। उसे कभी किसी ने प्यार नहीं किया। प्यार किया पर बस दोस्त की तरह। कोई इससे आगे बढ़ा ही नहीं। तो क्या ये लड़की जब आगे बढ़ी, तो इसने सिर्फ इसिलिए हाँ बोला कि क्या पता फिर कोई मिले ना मिले, या फिर इतनी खुबसूरत लड़की उससे कैसे प्यार कर सकती है और अगर करती है तो उसे आँख बंद करके हाँ बोल देनी चाहिए क्यूँकी ऐसी किस्मत उसे दुबारा तो नहीं मिलेगी। जब मन में अन्तर्द्वन्द चलता है तो समझ नहीं आता कि सही क्या है और गलत क्या। इश्क़ है या कुछ और। क्या करना चाहिए उसे। शायद वो इसका ज़वाब जानता था मगर मानने से इंकार कर रहा था। और इसी जद्दोज़हद में उसने उसे हाँ कर दिया था।
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