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Nitesh Kumar jha ....✓

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वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

आविः सन्निहितं गुहाचरं नाम महत् पदमत्रैतत्‌ समर्पितम्‌।
एजत् प्राणन्निमिषच्च यदेतज्जानथ सदस-द्वरेण्यं परं विज्ञानाद्यद्वरिष्ठं प्रजानाम्‌ ॥

स्वयं आविर्भूत परम तत्त्व यहाँ सन्निहित है, यह हृद्गुहा में विचरने वाला महान् पद है, इसमें ही यह सब समर्पित है जो गतिमान् है, प्राणवान् है तथा जो दृष्टिमान् है। यह जो यही महान् पद है, उसको ही 'सत्' तथा 'असत्' जानो, जो परम वरेण्य है, महत्तम एवं 'सर्वोच्च' (वरिष्ठ) है, तथा जो प्राणियों (प्रजाओं) के ज्ञान से परे है।

Manifested, it is here set close within, moving in the secret heart, this is the mighty foundation and into it is consigned all that moves and breathes and sees. This that is that great foundation here, know, as the Is and Is not, the supremely desirable, greatest and the Most High, beyond the knowledge of creatures.

( मुंडकोपानिषद २.२.१ ) #मुंडकोपनिषद #उपनिषद #ज्ञान_गंगा  #ज्ञान #वेदत्व #वेदांत #mundakopanishad #upnishads

वेदों की दिशा

।। ओ३ म् ।।

तस्यै तपो दमः कर्मेति प्रतिष्ठा ।
 वेदाः सर्वाङ्गानि सत्यमायतनम्‌ ॥

तप, आत्म-विजय (दम) तथा कर्म इस अन्तरज्ञान के आधार (प्रतिष्ठा) हैं, 'वेद' इसके सब अंग हैं, सत्य इसका धाम है।

Of this knowledge austerity and self-conquest and works are the foundation, the Vedas are all its limbs, truth is its dwelling place.

केनोपनिषद चतुर्थ खण्ड मंत्र ८ #केनोपनिषद #उपनिषद #वेद #वेद_विद्या #ज्ञान #कर्म #karma

वेदों की दिशा

।। ॐ ।।
                                      वि॒द्यां चावि॑द्यां च॒ यस्तद्वेदो॒भय॑ꣳ स॒ह।
                                    अवि॑द्यया मृ॒त्युं ती॒र्त्वा वि॒द्यया॒मृत॑मश्नुते ॥१४ ॥
 पद पाठ

वि॒द्याम्। च॒। अवि॑द्याम्। च॒। यः। तत्। वेद॑। उ॒भय॑म्। स॒ह ॥ अवि॑द्यया। मृ॒त्युम्। ती॒र्त्वा। वि॒द्यया॑। अ॒मृत॑म्। अ॒श्नु॒ते॒ ॥




(यः) जो विद्वान् (विद्याम्) पूर्वोक्त विद्या (च) और उसके सम्बन्धी साधन-उपसाधनों (अविद्याम्) पूर्व कही अविद्या (च) और इसके उपयोगी साधनसमूह को और (तत्) उस ध्यानगम्य मर्म (उभयम्) इन दोनों को (सह) साथ ही (वेद) जानता है, वह (अविद्यया) शरीरादि जड़ पदार्थ समूह से किये पुरुषार्थ से (मृत्युम्) मरणदुःख के भय को (तीर्त्वा) उल्लङ्घ कर (विद्यया) आत्मा और शुद्ध अन्तःकरण के संयोग में जो धर्म उससे उत्पन्न हुए यथार्थ दर्शनरूप विद्या से (अमृतम्) नाशरहित अपने स्वरूप वा परमात्मा को (अश्नुते) प्राप्त होता है ॥


(Ie) the scholar (vidyam) aforesaid lore (f) and its related resources (avidyam) formerly said avidya (f) and its useful means and (t) that meditative heart (ubhyam), both of them (co) together  He (the Vedas) knows that (avidya) from the Purushartha of the Shariadi root matter group (death), the fear of deathliness (tirtha), (the student) in the combination of the soul and the pure conscience, the religion arising out of the real philosophy  (Amritam) is perishable in its form and God attains (Ashunate).

ईशोपनिषद मंत्र १४ #ईशोपनिषद #वेद #उपनिषद #यजुर्वेद #वेदांत #विद्या #अविद्या

Shankar Kamble

*गढूळ झाले तळ मनाचे*
*आटून गेले नितळ झरे*
*ओलं सरता उरल्या भेगां*
*खोल उमटले घाव,चरे..!*

*रणरणणाऱ्या उन्हांत आता*
*झुळूक हरवली कुठेतरी*
*पदोपदी पेरले निखारे*
*फुंकर भासे दाह परी..!*

*आपल्याच जखमां कुरवाळीत*
*किती दिलासे उसने,खोटे*
*लपेटली जरी भळभळ ओली*
*सल मनाची मनांत दाटे..!*

*भार वाहूनी झाडं ही थकले*
*ऋतू बदलले काळ ओसरे*
*सुने घरटे काय उरले?*
*पंख फुटता दूर पाखरे..!*

*काय भरवसा फिरुनी येतील?*
*कोसळल्यावर टिपे गाळतील?*
*उन्हं जगाचे चटके देईल*
*पंखाची उब शोधत बसतील..!*

©Shankar Kamble #Foggy #गढूळ #तळ #माया #प्रेम #वेदना #वेदनांचागाव #काठावर

वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

तस्मादृचः साम यजूंषि दीक्षा यज्ञाश्च सर्वे क्रतवो दक्षिणाश्च।
संवत्सरश्च यजमानश्च लोकाः सोमो यत्र पवते यत्र सूर्यः ॥

उसी 'परमात्म-तत्त्व' से ऋग्वेद की, सामवेद तथा यजुर्वेद की ऋचाएँ तथा मन्त्रगान हैं, दीक्षाएँ, समस्त यज्ञ तथा योग-कर्म और दान-दक्षिणाएँ हैं, उसी से संवत्सर हैं, यजमान हैं, लोक-लोकान्तर हैं जिनमें चन्द्रमा तथा सूर्य प्रकाश फैलाते हैं।

From Him are the hymns of the Rig Veda, the Sama and the Yajur, initiation, and all sacrifices and works of sacrifice, and dues given, the year and the giver of the sacrifice and the worlds, on which the moon shines and the sun.

( मुंडकोपनिषद २.१.६ ) #मुण्डकोपनिषद #mundakopanishad #उपनिषद् #upnishad #वेद #वेदांत #vedant #him

Shankar kamble

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Vedant Singh

वेदलम।

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आग का फूल हूँ, हर ऋतू में जल रहा हूँ,
चमक उड़ गई है, बस लपटे निकल रही है!
वेदलम। वेदलम।

Pradeep Singh

वेदात #शायरी

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 वेदात

Jayshree Hatagale

"वेदनांकूर"

घायाळ वेदनांनी का अंतरंग होते?
सल कोणती मनातील उमलून पुन्हा येते?

जन्म उभा हा, कष्टतो देह सारा
रक्ताळल्या हांतांवर फुटे वेदनेला धुमारा

लपवूनी कधी दुःख न् लपते
एक वेदना उराशी सदा बिलगते

अंधार जीवनी, जरी हा वसतो
एक काजवा उमेदीचा तरीही दिसतो

वेदनेशीही, नाते जवळचे असते
एक वेदना पुन्हा अंकुरण्या तरसते #वेदनांकुर
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