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HINDI SAHITYA SAGAR
कविता : रुक्मिणी का विरह न मैं मीरा बनी न ही राधा बनी, देखो बस रह गयी बनके मैं रुक्मणि। साथ उनका रहा बस घड़ी दो घड़ी। नाम उनका हुआ रह गयी मैं पड़ी। आज देखो बने है सदन ही सदन, साथ राधा ही कृष्ण के संग-संग खड़ी। दोष मेरा था क्या ये बता दो सभी? द्वारिका में अकेले क्यूँ पड़ी रह गयी? ©HINDI SAHITYA SAGAR #andhere कविता : रुक्मिणी का विरह न मैं मीरा बनी न ही राधा बनी, देखो बस रह गयी बनके मैं रुक्मणि। साथ उनका रहा बस घड़ी दो घड़ी। नाम उनका हुआ
ARVIND KUMAR KASHYAP
Rohit Tiwari Raja baba
HINDI SAHITYA SAGAR
न मैं मीरा बनी न ही राधा बनी, देखो बस रह गयी बनके मैं रुक्मिणी। साथ कृष्ण रहे ज़िंदगी भर मेरी, नाम उनका हुआ रह गयी मैं पड़ी। आज देखो बने है सदन ही सदन, साथ राधा ही कृष्ण के संग में खड़ी। दोष मेरा था क्या ये बता दो सभी। क्यों द्वारिका में अकेले पड़ी रह गयी? -शैलेन्द्र ©HINDI SAHITYA SAGAR #janmashtami न मैं मीरा बनी न ही राधा बनी, देखो बस रह गयी बनके मैं रुक्मिणी। साथ कृष्ण रहे ज़िंदगी भर मेरी, नाम उनका हुआ रह गयी मैं पड़ी। आज
HintsOfHeart.
"इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है इतने मौलिक बनो कि जितना स्वयं सृजन है" ©HintsOfHeart. #द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी -हिन्दी के साहित्यकार जिन्होंने बाल साहित्य पर 26 पुस्तकें लिखीं, जिससे वे 'बच्चों के गांधी' भी कहलाते हैं।
HINDI SAHITYA SAGAR
कविता : रुक्मिणी का विरह न मैं मीरा बनी न ही राधा बनी, देखो बस रह गयी बनके मैं रुक्मणि। साथ उनका रहा बस घड़ी दो घड़ी। नाम उनका हुआ रह गयी मैं पड़ी। आज देखो बने है सदन ही सदन, साथ राधा ही कृष्ण के संग-संग खड़ी। दोष मेरा था क्या ये बता दो सभी? द्वारिका में अकेले क्यूँ पड़ी रह गयी? ©HINDI SAHITYA SAGAR कविता : रुक्मिणी का विरह न मैं मीरा बनी न ही राधा बनी, देखो बस रह गयी बनके मैं रुक्मणि। साथ उनका रहा बस घड़ी दो घड़ी। नाम उनका हुआ रह गयी मैं
N S Yadav GoldMine
अर्जुन ने अपने-आपको श्रीकृष्ण को समर्पित कर दिया था| अर्जुन होता हुआ भी, नहीं था, इसलिए कि उसने जो कुछ किया, अर्जुन के रूप में नहीं, श्रीकृष्ण के सेवक के रूप में किया| सेवक की चिंता स्वामी की चिंता बन जाती है| अर्जुन का युद्ध अपने ही पुत्र बब्रुवाहन के साथ हो गया, जिसने अर्जुन का सिर धड़ से अलग कर दिया... और कृष्ण दौड़े चले आए... उनके प्रिय सखा और भक्त के प्राण जो संकट में पड़ गए थे| अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा बब्रुवाहन ने पकड़ लिया और घोड़े की देखभाल की जिम्मेदारी अर्जुन पर थी, बब्रुवाहन ने अपनी मां चित्रांगदा को वचन दिया था कि मैं अर्जुन को युद्ध में परास्त करूंगा, क्योंकि अर्जुन चित्रांगदा से विवाह करने के बाद लौटकर नहीं आया था| और इसी बीच चित्रांगदा ने बब्रुवाहन को जन्म दिया था, चित्रांगदा अर्जुन से नाराज थी और उसने अपने पुत्र को यह तो कह दिया था कि तुमने अर्जुन को परास्त करना है लेकिन यह नहीं बताया था कि अर्जुन ही तुम्हारा पिता है... और बब्रुवाहन मन में अर्जुन को परास्त करने का संकल्प लिए ही बड़ा हुआ| शस्त्र विद्या सीखी, कामाख्या देवी से दिव्य बाण भी प्राप्त किया, अर्जुन के वध के लिए| और अब बब्रुवाहन ने अश्वमेध के अश्व को पकड़ लिया तो अर्जुन से युद्ध अश्वयंभावी हो गया, भीम को बब्रुवाहन ने मूर्छित कर दिया| और फिर अर्जुन और बब्रुवाहन का भीषण संग्राम हुआ| अर्जुन को परास्त कर पाना जब असंभव लगा तो बब्रुवाहन ने कामाख्या देवी से प्राप्त हुए दिव्य बाण का उपयोग कर अर्जुन का सिर धड़ से अलग कर दिया| श्रीकृष्ण को पता था कि क्या होने वाला है, और जो कृष्ण को पता था, वही हो गया| वे द्वारिका से भागे-भागे चले आए| दाऊ को कह दिया, "देर हो गई, तो बहुत देर हो जाएगी, जा रहा हूं|" कुंती विलाप करने लगी... भाई विलाप करने लगे... अर्जुन पांडवों का बल था| आधार था, लेकिन जब अर्जुन ही न रहा तो जीने का क्या लाभ| मां ने कहा, "बेटा, तुमने बीच मझदार में यह धोखा क्यों दिया? मां बच्चों के कंधों पर इस संसार से जाती है और तुम मुझसे पहले ही चले गए| यह हुआ कैसे? यह हुआ क्यों? जिसके सखा श्रीकृष्ण हों, जिसके सारथी श्रीकृष्ण हो, वह यों, निष्प्राण धरती पर नहीं लेट सकता... पर यह हो कैसे गया?" देवी गंगा आई, कुंती को कहा, "रोने से क्या फायदा, अर्जुन को उसके कर्म का फल मिला है| जानती हो, अर्जुन ने मेरे पुत्र भीष्म का वध किया था, धोखे से| वह तो अर्जुन को अपना पुत्र मानता था, पुत्र का ही प्यार देता था| लेकिन अर्जुन ने शिखंडी की आड़ लेकर, मेरे पुत्र को बाणों की शैया पर सुला दिया था| क्यों? भीष्म ने तो अपने हथियार नीचे रख दिए थे| वह शिखंडी पर बाण नहीं चला सकता था| वह प्रतिज्ञाबद्ध था, लेकिन अर्जुन ने तब भी मेरे पुत्र की छाती को बाणों से छलनी किया| तुम्हें शायद याद नहीं, लेकिन मुझे अच्छी तरह याद है... तब मैं भी बहुत रोई थी| अब अर्जुन का सिर धड़ से अलग है| बब्रुवाहन ने जिस बाण से अर्जुन का सिर धड़ से अलग किया है, वह कामाख्या देवी माध्यम से मैंने ही दिया था| अर्जुन को परास्त कर पाना बब्रुवाहन के लिए कठिन था, आखिर उसने मेरे ही बाण का प्रयोग किया और मैंने अपना प्रतिशोध ले लिया| अब क्यों रोती हो कुंती? अर्जुन ने मेरे पुत्र का वध किया था और अब उसी के पुत्र ने उसका वध किया है, अब रोने से क्या लाभ? जैसा उसने किया वैसा ही पाया| मैंने अपना प्रतिशोध ले लिया|" और प्रतिशोध शब्द भगवान श्रीकृष्ण ने सुन लिया... हैरान हुए... अर्जुन का सिर धड़ स अलग था| और गंगा मैया, भीष्म की मां अर्जुन का सिर धड़ से अलग किए जाने को अपने प्रतिशोध की पूर्ति बता रही हैं... श्रीकृष्ण सहन नहीं कर सके... एक नजर भर, अर्जुन के शरीर को, बुआ कुंती को, पांडु पुत्रों को देखा... बब्रुवाहन और चित्रांगदा को भी देखा... कहा, "गंगा मैया, आप किससे किससे प्रतिशोध की बात कर रही हैं? बुआ कुंती से... अर्जुन से, या फिर एक मां से? मां कभी मां से प्रतिशोध नहीं ले सकती| मां का हृदय एक समान होता है, अर्जुन की मां का हो या भीष्म की मां का... आपने किस मां प्रतिशोध लिया है?" गंगा ने कहा, "वासुदेव ! अर्जुन ने मेरे पुत्र का उस समय वध किया था, जब वह निहत्था था, क्या यह उचित था? मैंने भी अर्जुन का वध करा दिया उसी के पुत्र से... क्या मैंने गलत किया? मेरा प्रतिशोध पूरा हुआ... यह एक मां का प्रतिशोध है|" श्रीकृष्ण ने समझाया, "अर्जुन ने जिस स्थिति में भीष्म का वध किया, वह स्थिति भी तो पितामह ने ही अर्जुन को बताई थी, क्योंकि पितामह युद्ध में होते, तो अर्जुन की जीत असंभव थी... और युद्ध से हटने का मार्ग स्वयं पितामह ने ही बताया था, लेकिन यहां तो स्थिति और है| अर्जुन ने तो बब्रुवाहन के प्रहारों को रोका ही है, स्वयं प्रहार तो नहीं किया, उसे काटा तो नहीं, और यदि अर्जुन यह चाहता तो क्या ऐसा हो नहीं सकता था... अर्जुन ने तो आपका मान बढ़ाया है, कामाख्या देवी द्वारा दिए गए आपके ही बाण का... प्रतिशोध लेकर आपने पितामह का, अपने पुत्र का भी भला नहीं किया|" गंगा दुविधा में पड़ गई| श्रीकृष्ण के तर्कों का उसके पास जवाब नहीं था| पूछा, "क्या करना चाहिए, जो होना था सो हो गया| आप ही मार्ग सुझाएं|" श्रीकृष्ण ने कहा, "आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो गई, उपाय तो किया ही जा सकता है, कोई रास्ता तो होता ही है| जो प्रतिज्ञा आपने की, वह पूरी हो गई| जो प्रतिज्ञा पूरी हो गई तो अब उसे वापस भी लिया जा सकता है, यदि आप चाहें तो क्या नहीं हो सकता? कोई रास्ता तो निकाला ही जा सकता है|" गंगा की समझ में बात आ गई और मां गंगा ने अर्जुन का सिर धड़ से जोड़ने का मार्ग सुझा दिया| यह कृष्ण के तर्कों का कमाल था| जिस पर श्रीकृष्ण की कृपा हो, जिसने अपने आपको श्रीकृष्ण को सौंप रखा हो, अपनी चिंताएं सौंप दी हों, अपना जीवन सौंप दिया हो, अपना सर्वस्व सौंप दिया हो, उसकी रक्षा के लिए श्रीकृष्ण बिना बुलाए चले आते हैं| द्वारिका से चलने पर दाऊ ने कहा था, 'कान्हा, अब अर्जुन और उसके पुत्र के बीच युद्ध है, कौरवों के साथ नहीं, फिर क्यों जा रहे हो?' तो कृष्ण ने कहा था, 'दाऊ, अर्जुन को पता नहीं कि वह जिससे युद्ध कर रहा है, वह उसका पुत्र है| इसलिए अनर्थ हो जाएगा| और मैं अर्जुन को अकेला नहीं छोड़ सकता|' भगवान और भक्त का नाता ही ऐसा है| दोनों में दूरी नहीं होती| और जब भक्त के प्राण संकट में हों, तो भगवान चुप नहीं बैठ सकते| अर्जुन का सारा भाव हो, और कृष्ण दूर रहें, यह हो ही नहीं सकता| याद रखें, जिसे श्रीकृष्ण मारना चाहें, कोई बचा नहीं सकता और जिसे वह बचाना चाहें, उसे कोई मार नहीं सकता| अर्जुन और श्रीकृष्ण हैं ही एक... नर और नारायण| ©N S Yadav GoldMine #Silence अर्जुन ने अपने-आपको श्रीकृष्ण को समर्पित कर दिया था| अर्जुन होता हुआ भी, नहीं था, इसलिए कि उसने जो कुछ किया, अर्जुन के रूप में नहीं
PARBHASH KMUAR
मनुष्य जब भी प्रेम की परिभाषा के बारे में सोचता है, तो सदैव ही राधा रानी और श्री कृष्ण की एक सुंदर सी छवि उसे अपनी ओर आकर्षित करती है। लेकिन क्या आपको पता है, कि श्री कृष्ण की प्रियतमा राधा नहीं, बल्कि रुक्मिणी उनकी पत्नी थीं? और इस विवाह के लिए देवी रुक्मिणी का हरण किया गया था? वेद-पुराण और साहित्य के अनुसार, श्रीकृष्ण की 8 रानियां थीं, जिनसे उन्होंने विधिपूर्वक विवाह किया था। इन 8 रानियों में सबसे पहली थीं, रानी रुक्मिणी। आइए उनके और श्री कृष्ण के विवाह की कथा को जानते हैं। देवी रुक्मिणी और श्रीकृष्ण के विवाह की कथा बेहद रोचक है। आज हम आपको बताएंगे, कि आखिर कैसे ये दोनों मिले और यह विवाह संपन्न हुआ। मानवजाति को अपनी लीलाओं की क्रीड़ा दिखाने वाले श्री कृष्ण के काल में, विदर्भ के राजा भीष्मक की एक कथा सुनने को मिलती है। भीष्मक के 5 पुत्रों के अलावा, उनकी एक पुत्री भी थीं, रुक्मिणी। अत्यंत सुंदर, बुद्धिमान और सदाचारी व्यवहार वाली रुक्मिणी, बचपन से ही श्री कृष्ण की साहस और वीरता की कायल थीं। ऐसा भी कहा जाता है, कि उन्होंने श्री कृष्ण द्वारा कंस के वध को भी साक्षात देखा था। जब रुक्मिणी की उम्र विवाह योग्य हुई, तो इसके संबंध में उनके भाई रुक्मी और माता-पिता को चिंता होने लगी। एक बार राजमहल के पुरोहित जी, द्वारिका से भ्रमण करते हुए विदर्भ आए। यहां आकर, वह श्री कृष्ण के रूप और गुणों का वर्णन करने लगे और साथ ही, चित्र के माध्यम से सभी को उनके छवि दर्शन भी कराए। उस वक़्त जब देवी रुक्मिणी ने उन्हें देखा, तो वह भी मोहित हो गईं और मन ही मन उन्हें अपना स्वामी मान बैठीं। अब कठिनाई यह थी, कि देवी रुक्मिणी के पिता और भाई रुक्मी का संबंध, सदैव श्री कृष्ण का अहित चाहने वाले जरासंध, कंस और शिशुपाल से था। यही वजह थी, कि रुक्मिणी का विवाह श्री कृष्ण से होना संभव नहीं था। जब राजनीतिक संबंधों को ध्यान में रखकर शिशुपाल से रुक्मिणी का विवाह उनकी मर्ज़ी के विरुद्ध तय हो गया, तब देवी से रहा नहीं गया और उन्होंने प्रेम पत्र लिखकर ब्राह्मण कन्या सुनन्दा के हाथों, श्री कृष्ण तक पहुंचा दिया। भेजे गए उस पत्र में रुक्मिणी लिखती हैं, “हे नंद-नंदन! मैंने आपको ही पति के रूप में वरण किया है। मैं आपके अतिरिक्त, किसी अन्य पुरुष से विवाह नहीं कर सकती। मेरे पिता और भाई, मेरी इच्छा के विरुद्ध मेरा विवाह शिशुपाल के साथ करना चाहते हैं और विवाह तिथि भी निश्चित है। मेरे कुल की रीति है, कि विवाह पूर्व दुल्हन की वेशभूषा में वधु नगर के बाहर गिरिजा मंदिर में दर्शन प्राप्ति हेतु जाती है। मैं भी वहां जाउंगी। अतः आपसे मेरा निवेदन है, कि आप आएं और मुझे पत्नी के रूप में वहीं स्वीकार करें। अगर आप नहीं आते हैं, तो मैं अपने प्राणों का त्याग करने की मंशा रखती हूँ।” अब भगवान श्री कृष्ण तो स्वयं सृष्टि के रचयिता हैं, उनसे तो कुछ भी छुपा नहीं था। फिर जब उन्हें यह आभास हुआ, कि देवी रुक्मिणी संकट में हैं, तो उन्होंने एक योजना बनाई। जब शिशुपाल बारात लेकर विदर्भ पहुंचा, उससे पहले ही श्री कृष्ण अपने बड़े भाई बलराम की मदद से रुक्मिणी का हरण कर के वहां से चले गए। हरण के पश्चात श्री कृष्ण ने शंख की ध्वनि से धरती से आसमान तक, इसकी सूचना दे दी और यह देखकर शिशुपाल भी अत्यंत क्रोध में आ गया। वह तुरंत ही श्री कृष्ण के वध की मंशा से निकल पड़ा, लेकिन यहां भी उसके हाथों हार ही लगी और प्रभु, देवी रुक्मिणी समेत द्वारिका की ओर प्रस्थान कर गए। द्वारिका में श्री कृष्ण और रुक्मिणी के विवाह की उत्तम तैयारी हुई और यह विवाह संपन्न हुआ। ऐसा कहा जाता है, कि श्री कृष्ण का हर कर्म एक लीला है, जिसमें जीवन के लिए एक सीख व्याप्त है। इसी प्रकार, श्री कृष्ण-रुक्मिणी विवाह से भी हमें यह सीख मिलती है, कि महिलाओं को अपने अधिकार चुनने का पूरा अधिकार है और जब भी मनुष्य अपनी इच्छाओं को प्रभु के समक्ष प्रकट करेगा, तब नारायण स्वयं उसको पूरा करने के लिए अपने आशीष की स्नेह वर्ष करेंगे। अगर आपको यह कथा वृतांत पसंद आया, तो ऐसी ही और भी मनोरम लीलाओं और कहानियों को सुनने के लिए जुड़े रहिये, Sri Mandir के साथ। ©parbhashrajbcnegmailcomm मनुष्य जब भी प्रेम की परिभाषा के बारे में सोचता है, तो सदैव ही राधा रानी और श्री कृष्ण की एक सुंदर सी छवि उसे अपनी ओर आकर्षित करती है। लेकिन