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सरहिंद शिफाखाना (Dr.Zub@ir Ahm@d

Darshan Raj

#a #gazal #nazm #bazm_e_nazm #bazm_e_urdu #Darshan_Raj #Shayar #shayri #rekhta RAVINANDAN Tiwari Anshu writer Internet Jockey vks Siyag Sudha Tripathi

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इक  जमाना  हो गया  तुमसे  मिले,।
हमें   इस  जमाने  में  तुम से  मिले ।

मिरा   राज़ - दाँ  पूछता  है मुझसे ,।
हम  क्यों,  कहां,  कब, कैसे  मिले ।

छुपाए  थे  जिसने  खुद  से  कभी,।
आख़री  ख़त  हमें  सिरहाने  मिले ।

हर   दुआ   बे-असर  लगने लगी , ।
शहनाइयों  के जब  लिफ़ाफे मिले ।

कैसे  बताऊं  सब  पूछते  हैं  लोग,।
जो  ज़ख़्म तेरी  निशानी  से  मिले ।

फ़साना-ए-ग़म  सुनाती  है दीवार,।
चिराग़ों  मैं  जलते  परवाने   मिले ।

जो चाहते न थे  उन्हें चाहत मिली,।
हमको उस चाहत से शिकवे मिले ।

हमें  इब्तिदा-ए-इश्क़ के सफ़र में,।
ऐ  ग़म-गुसार  ये ख़ार  तिरे  मिले ।

अंजाम-ए-मोहब्बत बताऊं कैसे, ।
ग़म-ए-हयात  सारे के सारे मिले, ।

उससे  बिछड़  कर  हैरां  हो  क्यूं, ।
उसको भी  इश्क में  फ़तवे  मिले ।

©Darshan Raj #a
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#bazm_e_urdu #Darshan_Raj #Shayar #shayri  #rekhta #Nojoto    RAVINANDAN Tiwari  Anshu writer  Internet Jockey vks Siyag Sudha Tripathi

Darshan Raj

#a शोख़ फिज़ाओं की साज़िशों में, सुब्ह शबनमों की बारिशों में । मन का दर्पण जब भीगने लगे, अश्रुओं की धारा सूखने लगे । तो मन की कुंडी खटखटा लेना, फिर इक दफा मुझे बुला लेना ।

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शोख़  फिज़ाओं  की साज़िशों में,
सुब्ह  शबनमों   की  बारिशों  में ।
मन का  दर्पण जब  भीगने  लगे,
अश्रुओं   की  धारा  सूखने  लगे ।
तो  मन की कुंडी  खटखटा लेना,
फिर  इक दफा  मुझे बुला  लेना ।

सहारा   बनने   लगे  जब   दीवार,
तन्हाई  लगने  लगे  जब  लाचार ।
खुद   को  खुद  की  खबर  ना हो,
कांटा  चुभने  का  असर  ना  हो ।
तो  आंगन  में  दीया  जला  लेना,
फिर  इक दफा मुझे  बुला  लेना ।

बज्मों  में   होने  लगे  सरगोशियां,
नज़्मों में दिखने लगे खामोशियां ।
जब   जाने   लगे  'अक़्ल-ए-कुल,
जब   बनने   लगे   चादर-ए-गुल ।
उस  रोज़  का  ताबीर  सुना  देना,
फिर  इक दफा  मुझे बुला  लेना ।

जब  हिचकियों  से  वास्ता ना रहे,
जब अपनों से कोई राब्ता ना रहे ।
जब   चाँद  का  नूर  जलाने  लगे,
जब अपना  साया दूर  जाने लगे ।
बीती  बातों  को  फिर  भुला देना,
फिर  इक दफा  मुझे बुला  लेना ।

©Darshan Raj #a 
शोख़  फिज़ाओं की साज़िशों में,
सुब्ह  शबनमों   की  बारिशों  में ।
मन का  दर्पण जब  भीगने  लगे,
अश्रुओं   की  धारा  सूखने  लगे ।
तो  मन की कुंडी  खटखटा लेना,
फिर  इक दफा  मुझे बुला  लेना ।

Darshan Raj

#a यही होता है हर बार अक्सर ! मुझे भूल जाता है यार अक्सर ! अब कैसे छुपाऊं हर बार सबसे ! दिख जाता है मिरा ग़ार अक्सर ! इक मिला न बोसा जबीं का !

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यही  होता  है  हर  बार अक्सर !
मुझे भूल जाता  है यार अक्सर !

अब कैसे छुपाऊं हर बार सबसे !
दिख जाता है मिरा ग़ार अक्सर !

इक   मिला  न बोसा  जबीं का !
पीछे रह गया तलबगार अक्सर !

हंसों की  तरह  संभलता  नहीं !
टूट  जाता  है हर  तार  अक्सर !

मसला वही  हर बार  की तरह !
मैं ही होता हूं गुनहगार अक्सर !

बदन पर ज़ख्म लिए ,दर्द लिए !
तेरे दर पर आए बीमार अक्सर !
 
भाव  अच्छा  मिले तो ले लेना !
‌बिकते  देखा है  प्यार  अक्सर !

उसके जाने की इक  खबर से !
गया   सब्र-ओ-क़रार  अक्सर !

पायलों  की  सदा  सुनने  को !
सहारा देती है  दीवार अक्सर !

बे-पर्दा  हुए पर्दा-नशीं जब से !
रहता है दिल बे-क़रार अक्सर !

©Darshan Raj #a 
यही  होता  है  हर  बार अक्सर !
मुझे भूल जाता  है यार अक्सर !

अब कैसे छुपाऊं हर बार सबसे !
दिख जाता है मिरा ग़ार अक्सर !

इक   मिला  न बोसा  जबीं का !

Darshan Raj

#a #gazal #nazm #bazm_e_nazm #bazm_e_urdu #Darshan_Raj #Shayar #shayri #rekhta बारगाहें=दरबार, सदन ,राजसभा हिलाल=छोटा चांद या नन्ना चांद ज़वाल=अंतिम क्षण, अंत, जाने का समय

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हम  बीमार  का  हाल  क्या बताएं ।
दिल  में भी है मलाल  क्या बताएं ।

जैसे  हालात  थे वैसे  हालात नहीं ।
हैं  सवाल   ही सवाल क्या बताएं ।

टूट  जाती  हैं  फंदे   की  रस्सियां ।
हो गया  जीना मुहाल क्या बताएं ।

आया है  मुसाफिर  शहर में जबसे ।
आता  नहीं   ख़्याल  क्या  बताएं ।

ख़रीद  नहीं  पाता  मोहब्बतों  को ।
जेबें हो गई हैं  कंगाल क्या बताएं ।

होने लगी  बारगाहें  जबसे छत पर ।
दिखता  नहीं हिलाल  क्या  बताएं ।

उसके  जाने  का  अफ़सोस न रहा ।
क़रीब आ गया ज़वाल क्या बताएं ।

दो-चार दिन की  यादें बची रह गई ।
हाय! ये कैसा है बवाल क्या बताएं ।

©Darshan Raj #a
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#bazm_e_urdu #Darshan_Raj #Shayar #shayri  #rekhta #Nojoto

बारगाहें=दरबार, सदन ,राजसभा
हिलाल=छोटा चांद या नन्ना चांद
ज़वाल=अंतिम क्षण, अंत, जाने का समय

Darshan Raj

मोहब्बतें  जगज़ाहिर   हो रहीं हैं,
तोबा-तोबा  कयामतें हो रहीं हैं ।

चार दिन  की  चांदनी, और जन, 
सरेआम   लुटियां  डुबो  रहीं  हैं ।

कट गया  शज़र भी  उम्मीद का,
सूटकेसों में  चिड़ियां सो रहीं हैं ।

हुआ जन्म सृष्टि का, मां जबसे,
लहू  का  ज़र्रा-ज़र्रा  बो  रहीं हैं ।

ये कैसी विडंबना  है देखो जरा,
प्रेम पाश में अस्मतें खो रहीं हैं ।

चढ़ गया  लेप  कांच का जबसे
दीमकें घर बनाने को रो रहीं हैं ।

धर्म के  नाम  पर सरकारें   भी,
बहती गंगा में  हाथ धो रहीं है ।

मुफ़लिसी  की ये अदा  भी देखो,
चीटियां भी खिलौने संजो रहीं हैं ।

©Darshan Raj #a
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Darshan Raj

तुम्हें  यह सुनहरा साल मुबारक..!
आने वाला हर  ख़्याल मुबारक..!

तुम जश्न मनाओ जन्मदिन का..!
मोम- बत्तियों का हाल मुबारक..!

कैसे हो हमें भी तो बताओ ज़रा..!
पूछने वालों का सवाल मुबारक..!

उफ़ ये महताब  और ये सादगी..!
परिंदे  तुझे तेरा  जाल  मुबारक..!

यूँ न  देखो हमें  सेहर नजरों से..!
शतरंज  की  हर चाल  मुबारक..!

मैं भी  याद  क्यूं  करूं  तुमको..।
तुम्हें  तुम्हारा  मलाल  मुबारक..!

वो पढ़ नहीं पाए  चश्म-ए-नम..।
"राज" तुम्हें भी जमाल मुबारक..।

©Darshan Raj #a
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MM Mumtaz

MM Mumtaz

Zahoor Faizi Barabankvi

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